नई दिल्ली. गुजरात के मुख्यमंत्री और बीजेपी चुनाव प्रचार अभियान समिति
के अध्यक्ष नरेंद्र दामोदार दास मोदी ने गुजरात के कच्छ इलाके के भुज शहर
में अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर
आलोचना के कई तीर छोड़े। लेकिन इस दौरान गुजरात गौरव और 'लौह पुरुष' के नाम
से मशहूर सरदार वल्लभ भाई पटेल का जिक्र कर मोदी ने कई दुखती रगों को छू
लिया।
मोदी ने कहा कि मनमोहन सिंह सरदार वल्लभ भाई पटेल और लाल बहादुर
शास्त्री को भूल गए। क्या सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा 'स्टेचू ऑफ
यूनिटी' बनवाने के लिए बड़ा अभियान जल्द ही शुरू करने जा रहे मोदी गलत हैं?
क्या स्वतंत्रता दिवस जैसे अहम मौके पर जान बूझकर वल्लभ भाई पटेल को भुला
दिया गया है? क्या पटेल के साथ आजादी के समय से ही नाइंसाफी नहीं हो रही
है?
1946 में ही तय होना था भारत का पहला प्रधानमंत्री
टिप्पणीकार टीसीए श्रीनिवास राघवन के मुताबिक 1946 में कांग्रेस को
देश के पहले प्रधानमंत्री का चुनाव करना था। लेकिन उससे पहले कांग्रेस के
अध्यक्ष का चुनाव होना था। उस समय यह लगभग तय था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही
देश का अगला प्रधानमंत्री बनेगा। तब कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम
आजाद थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव 1940 से भारत छोड़ो आंदोलन और
दूसरे विश्व युद्ध के चलते छह सालों तक नहीं हो पाया था।
इस माहौल में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव शुरू हुआ। रेस में तीन
नाम थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू।
कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख 29
अप्रैल, 1946 थी। लेकिन 20 अप्रैल को ही गांधी जी ने आज़ाद के मुकाबले
नेहरू को तरजीह देने का संकेत दे दिया था।
15 कांग्रेस समितियों में से 12 थीं पटेल के हक में, नेहरू के पक्ष में कोई नहीं
नेहरू को लेकर गांधी जी की पसंद के बावजूद 15 प्रदेश कांग्रेस
समितियों में से 12 ने सरदार पटेल का नाम आगे बढ़ाया। अन्य तीन समितियों ने
भी नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया। लेकिन गांधी जी अपनी जिद पर अड़े
थे। उन्होंने जेबी कृपलानी से नेहरू के पक्ष में माहौल बनाने के लिए कहा।
इसके बाद कुछ लोगों के हस्ताक्षर जुटाए गए। हालांकि कांग्रेस का अध्यक्ष
चुनने में इन लोगों की कोई भूमिका नहीं थी। यह अधिकार सिर्फ 15 प्रदेश
कांग्रेस प्रमुखों के पास था।
गांधी के 'वीटो' के चलते कटा था पटेल का पत्ता
गांधी के कहने पर कृपलानी ने नेहरू को कांग्रेस का अगला अध्यक्ष बनाए
जाने के लिए कुछ नेताओं के हस्ताक्षर जुटाए। टिप्पणीकार टीसीए श्रीनिवास
राघवन के मुताबिक कृपलानी की कोशिश से नेहरू के पक्ष में जुटे हस्ताक्षरों
को गांधी जी की वजह से किसी ने चुनौती नहीं दी। इसके बाद गांधी जी के कहने
पर सरदार पटेल ने अध्यक्ष पद के लिए अपना नामांकन वापस ले लिया।
गांधी जी के सामने नेहरू ने साध ली थी चुप्पी, नाराज हो गए थे राजेंद्र
गांधी जी कहने पर जब पटेल ने 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए
हुए चुनाव में अपना नामांकन वापस ले लिया तो गांधी जी ने यह बात नेहरू को
बताई। लेकिन महात्मा गांधी की पूरी बात सुनने के बाद नेहरू ने सिर्फ चुप्पी
से इसका जवाब दिया। नेहरू के लिए गांधी जी की इच्छा को देखते हुए कलाम ने
भी अपने पैर पीछे खींच लिए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद इस पूरे मामले को लेकर
बहुत नाराज हुए। वे इस बात से नाराज थे कि पटेल को जबर्दस्ती नामांकन वापस
लेना पड़ा।
सरदार पटेल 15 में से 12 कांग्रेस प्रदेश समितियों के समर्थन के
बावजूद पार्टी के अध्यक्ष पद के चुनाव से पीछे हट गए थे। टिप्पणीकार टीसीए
श्रीनिवास राघवन के मुताबिक पटेल ने गांधी जी की इच्छा के सम्मान और जिन्ना
के हिंदुस्तान को बांटने की कोशिशों का मुकाबला करते समय एकता बनाए रखने
के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष पद की रेस से अपने हाथ खींच लिए थे। इसी वजह से
वे देश के पहले प्रधानमंत्री पद की रेस से भी बाहर हो गए।
क्यों मान गए थे पटेल
कलाम आजाद ने भी मानी थी चूक
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद ने माना था कि पटेल पर
नेहरू को चुनने का गांधी का फैसला गलत था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस
बारे में लिखा था। अबुल कलाम के निधन के बाद 1959 में प्रकाशित उनकी
आत्मकथा में उन्होंने लिखा, 'यह मेरी गलती थी कि मैंने सरदार पटेल का
समर्थन नहीं किया। हम कई मुद्दों पर अलग राय रखते थे। लेकिन मुझे लगता है
कि अगर मेरे बाद पटेल कांग्रेस के अध्यक्ष बनते तो शायद कैबिनेट मिशन प्लान
कामयाबी से लागू किया जाता। वे नेहरू की तरह जिन्ना को पूरे प्लान को
बर्बाद करने का मौका देने जैसी गलती नहीं करते। मैं अपने को कभी माफ नहीं
कर सकता। जब मैं सोचता हूं मैंने ये गलतियां नहीं की होतीं तो शायद बीते दस
साल का इतिहास कुछ और होता।'
राजगोपालाचारी ने भी माना था, उनसे हुई है गलती
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे मौलाना अबुल कलाम आजाद की तरह सी.
राजगोपालाचारी ने भी लिखा, 'अगर नेहरू को विदेश मंत्री बनाया जाता और पटेल
को प्रधानमंत्री तो बेशक अच्छा होता। मैं नेहरू को पटेल से ज्यादा समझदार
समझने की गलती कर बैठा। पटेल को लेकर यह गलतफहमी बन गई थी कि वह मुस्लिमों
के प्रति कठोर हैं। यह गलत सोच थी, लेकिन उस समय ऐसी ही पक्षपात पूर्ण बात
पर जोर था।' राजगोपालाचारी पटेल से खफा रहते थे। उन्हें लगता था कि आज़ाद
भारत के पहले राष्ट्रपति बनने का अवसर पटेल के चलते उन्हें नहीं मिला।
बावजूद इसके राजगोपालाचारी ने पटेल को लेकर ऐसी बात लिखी थी।
नेहरू ने किया था देश की संप्रभुता से समझौता!
भारत ने 1962 के चीन युद्ध के बाद अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए के
यू-2 जासूसी विमानों को अपने यहां ईधन भरने की इजाजत दी थी। यह इजाजत
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीनी क्षेत्रों को निशाना बनाने
के मकसद से दी थी। राष्ट्रीय सुरक्षा अभिलेखागार (एनएसए) ने सीआईए से हासिल
दस्तावेज के आधार पर तैयार 400 पेज की रिपोर्ट में यह जानकारी दी है। ये
दस्तावेज कुछ समय पहले ही गोपनीय सूची से हटाए गए हैं। इन्हें सूचना की
आजादी अधिनियम के तहत प्राप्त किया गया है। इनके अनुसार, तत्कालीन
प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 11 नवंबर, 1962 को चीन के साथ लगे
सीमावर्ती इलाकों में यू-2 मिशन के विमानों को उड़ान भरने की इजाजत दी थी।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि 2001 में अमेरिका पर हमले के बाद
वहां के प्रशासन ने भारत से अपने जंगी विमानों में भारत में ईंधन भरने की
इजाजत मांगी थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस
मामले में यह कहते हुए मदद करने से इनकार कर दिया था कि भारत के संप्रभु
राष्ट्र है और वह ऐसी इजाजत नहीं दे सकता।
क्या है रिपोर्ट में
-इसमें 1954 से 1974 के बीच यू-2 के जासूसी कार्यों का ब्यौरा है।
इसके मुताबिक, 3 जून 1963 को अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी और भारतीय
राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन में सहमति बनी।
-सहमति के अनुसार, ओडिशा के छारबातिया वायुसैनिक अड्डे का इस्तेमाल
अमेरिका कर सकता था। छारबातिया द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से बंद था। उसे
ठीक करने ज्यादा समय लग गया।
-देर की वजह से अमेरिका ने थाईलैंड के ताखली अड्डे का इस्तेमाल किया।
अभियान को डिटैचमेंट जी नाम दिया गया। ताखली से उड़ान भरने वाले अमेरिकी
जासूसी विमानों से ही भारतीय सीमा पर चीन की गतिविधियों की जानकारी मिलती
थी।
-23 मई 1964 तक छारबातिया अड्डा उपयोग लायक नहीं हो सका था। इसके तीन
दिन बाद नेहरू की मृत्यु हो गई। नेहरू की मृत्यु के बाद यह समझौता रद्द कर
दिया गया। छारबातिया पहुंचे पायलट और विमान चले गए।
-दिसंबर 1964 में जब भारत-चीन में फिर तनाव बढ़ा तो डिटैचमेंट जी ने
छारबातिया से अभियान शुरू किया। तीन सफल उड़ानें भरी गईं। जुलाई 1967 में
छारबातिया को पूरी तरह बंद कर दिया गया।
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