दोस्तों! आज मैं बहुत खुश हूँ. मुझे एक सम्पादक मिल गया है. अब तक मैं टूटी-फूटी हिंदी में गलत-सलत उच्चारण से बहुत कुछ गलत लिखा करता था. लेकिन उसकी मरम्मत(संपादन) के लिए मुझे कोई मेरा भाई नहीं मिल पा रहा था. खुदा का शुक्र है कि-मेरी दुआ पूरी हुई, मेरी खोज पूरी हुई. मुझे मेरे भाई रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" जी सम्पादक के रूप में मिल गये. अब कहिये जनाब! आपको मेरी इस खोज और मेरे इस चयन पर ख़ुशी हुई या नहीं हुई कि-मैंने एक व्यवसायिक प्रकाशक, सम्पादक को इस मामले में अपने साथ जोड़कर संपादन की ज़िम्मेदारी सोंपी है. रमेश कुमार जैन मेरे भाई है.
इन्होंने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी. आलोचना करो और 200 रूपये इनाम पाओ! मैं ठहरा एक लालची. इसलिए इनाम के चक्कर में पड़ गया. दूसरा मैं अपनी आदत से मजबूर होकर फंस गया. शर्त थी गलती निकालो और इनाम पाओ! मेरी आदत थी कि-मैं किसी की भी गलती नहीं निकालता. काफी वक्त मेरे अंदर अन्तर्द्वन्द्ध रहा. बाद में मैंने वैसे ही इनाम पाने के लिए एक संदेश मेरे भाई रमेश जी को दिया. बस उनके पहले जवाब ने मुझे प्रफुल्लित कर दिया और मुझे लगा कि-मैंने 20 साल तक पत्रकारिता और सम्पादन काल में कुछ नहीं खोजा. जो जनाब रमेश जी ने मिलकर मेरी भूख शांत कर दी.
मैंने भी नकल की और भाई रमेश जी की तर्ज़ पर एक प्रतियोगिता इनाम पाने की घोषणा कर डाली. एक भी अच्छी और सुधरी हुई चीज़ मेरे ब्लॉग में ढुंढ़ों और 500 रूपये का इनाम पाओ. यकीन मानो. शुक्र मनाओ एक भी संदेश नहीं आया, क्योंकि मेरे ब्लॉग में कुछ ऐसा ठीक है ही नहीं. जो कोई इसके सुधरे हुए हिस्से को बता सके. खैर मैं तो अभी लोगों को पुरस्कार देने से बचा हुआ हूँ. लेकिन मैं रमेश जी से प्रभावित हुआ हूँ. इसलिए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ.
मैंने उनसे प्रार्थना की. रमेश भाई तुम मेरी पोस्टों का सम्पादन करो और उन्होंने स्वीकार किया. इस मामले में उनका मैं शुक्रगुजार हूँ. उन्होंने मुझे सहयोग भी किया है. दोस्तों! रमेश कुमार जैन नाम के ही "सिरफिरे" है. लेकिन इनका "सिर" फिरा हुआ नहीं है, क्योंकि "सिर" किसी का भी "फिर" ही नहीं सकता यह तो स्थिर रहता है. हाँ, सम्पादन की भाषा में बोलें तो दिमाग जरुर "फिर" जाता है. जो एक पत्रकार का दिमाग है वो इसलिए सहज सम्पादित रहता है. तब "फिरने" का सवाल ही नहीं उठता.
रमेश जी एक स्वतंत्र पत्रकार,प्रकाशक और मुद्रक है. यह दिल्ली के उत्तमनगर क्षेत्र में निर्दलीय नेतागिरी भी कर चुके हैं और "कैमरा" चुनाव चिन्ह पर दो बार चुनाव लड़कर अच्छे वोट प्राप्त किये थें. इनका जीवन का मुख्य लक्ष्य भारत को एक लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र बनाना है और इसी प्रयासों में यह जुटे हैं. इनका "शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया प्रकाशन" परिवार के नाम से प्रकाशन है. जोकि उत्तम नगर, दिल्ली में कार्यरत है. "जीवन का लक्ष्य" व "शकुन्तला सर्वधर्म सजोग" सहित साप्ताहिक, मासिक,पाक्षिक, तैमासिक प्रकाशन इनके चल रहे हैं. रमेश जी को टी.वी.सीरियलों में भी वही सीरियल पसंद हैं. जिनमें हंसी-हंसी में कुछ शिक्षा भी शामिल हो, फ़िल्में वो पसंद हैं. जो राष्ट्रभक्ति को बढ़ावा देती हो और "दिल" शायद थोड़ा टूटा हुआ-सा है. इसीलिए इन जनाब को दर्द भरी गजलें और दर्द भरे गीत पसंद है.
रमेश भाई के अनेक ब्लॉग पांचवे स्तम्भ की दुनिया में है. पहला "सिरफिरा-आज़ाद पंछी" दूसरा "रमेश कुमार सिरफिरा" तीसरा "सच्चा दोस्त" चौथा "आपकी शायरी" पांचवां "आपको मुबारक हो" और छठा "मुबारकबाद", शकुन्तला प्रेस ऑफ इंडिया प्रकाशन, सच का सामना(आत्मकथा), तीर्थंकर महावीर स्वामी जी, शकुन्तला प्रेस का पुस्तकालय और (जिनपर कार्य चल रहा है>>शकुन्तला महिला कल्याण कोष, मानव सेवा एकता मंच, एवं चुनाव चिन्ह पर आधरित कैमरा-तीसरी आँख ब्लॉग हैं.
कैमरा-तीसरी आँख वाला ब्लॉग पर अपने लड़े दोनों चुनाव की प्रक्रिया और अनुभव डालने का प्रयास कर रहे हैं. जिससे 2012 में दिल्ली नगर निगम के चुनाव होने है और उनकी दिली इच्छा है कि इस बार पहले ज्यादा निर्दलीय लोगों को चुनाव में खड़ा करने के लिए प्रेरित कर सकूँ. पिछली बार उन्होंने 11 लोगों की मदद की थी. उनका कहना है कि-जबतक आम-आदमी और अच्छे लोग राजनीति में नहीं आयेंगे. तब तक देश के बारें में अच्छा सोचना बेकार है. मेरे ब्लॉग से अगर लोगों को चुनाव प्रक्रिया की जानकारी मिल गई. तब शायद कुछ अन्य भी हौंसला दिखा सकें. मेरे अनुभव और संपत्ति की जानकारी देने से लोगों में एक नया संदेश भी जाएगा.
इनके "मुबारकबाद" ब्लॉग के काम में यह विनोद जैन को अपना सहयोगी मानते हैं और अपने वैवाहिक जीवन के कटु अनुभवों को सच का सामना(आत्मकथा) के माध्यम से उपन्यास के रूप में समेटने की कोशिश में भी लगे हुए हैं. ऐसे जनाब हैं मेरी पोस्टों के सम्पादक जनाब रमेश कुमार जैन. आप सभी को अच्छा लगा ना इनसे मिलकर. अब मिलते रहेंगे। आपको इनके बारें में ओर ज्यादा जाने की इच्छा है तो आप इनके ब्लॉग पर किल्क करें.
-आपका अपना:-अख्तर खान अकेला, कोटा (राजस्थान)
अख्तर खान अकेला जी, आप एक गुस्ताखी के लिए ओर क्षमा कर दें. आपके लेख का अपनी आदत से मजबूर होने के कारण संपादन कर दिया है. कृपया इसको अनाथा न लिजियेगा. अपनी गुस्ताखी के लिए एक बार फिर से क्षमा चाहते हैं. आपने अपने ब्लॉग पर इस नाचीज़ को इतनी इज्जत बख्शी उसके लिए आपका धन्यबाद! हम इस काबिल कहाँ कि आपके लेखों का संपादन कर सकें. एक-दो लेख का कभी-कभार संपादन किया जा सकता है मगर नियमित रूप से नहीं. अगर आप मेरे ब्लॉग को नियमित पढ़ते हैं. तब इसके कारणों से अवगत होंगे. इन दिनों डिप्रेशन, ववासिर और पत्थरी आदि की बिमारियों से ग्रस्त हूँ. खासतौर पर मानसिक परेशानी के चलते अपना कार्य नियमित रूप से करने में भी असमर्थ हूँ. मगर हाँ, कभी व्यक्ति विशेष पर लेख का संपादन करना हो तो पहले फ़ोन करके ईमेल कर दें. एक बात का हमेशा ध्यान रखना कि-मैं देश के स्वार्थी राजनीतिकों पर अपना अनुभव खर्च नहीं करता हूँ और हद से ज्यादा "सनकी" होने के कारण लिखने से पहले इनके बारे में बहुत ज्यादा खोजबीन करना पसंद करता हूँ. इसके लिए काफी समय की जरूरत होती है. मेरी "कलम" कोठे की वेश्या नहीं है. जो इनके कहने पर चलेंगी. जिस दिल में भौतिक वस्तुओं की चांह ही नहीं हो. तब अपने पत्रकारिता के फर्ज से कैसी गद्दारी करनी? अनजाने में हुई किसी प्रकार की गलती के लिए क्षमा चाहते हैं.
जवाब देंहटाएंअख्तर साहब! मेरा इनाम पक्का समझिये. मैंने आपने ब्लॉग पर एक सुधरी हुई चीज़ खोज ली है. आखिर खोजी पत्रकार जो ठहरा! कहिये तो राज की बात खोल दूँ और इनाम का दावा आपकी अदालत में कर दूँ.
आप दोनों का लखनऊ से क्या रिश्ता है?
जवाब देंहटाएंमाननीय श्री दिनेशराय द्विवेदी जी मेरा लखनऊ से कोई रिश्ता नहीं है, मैं लखनऊ के बारे में इतना जानता हूँ कि-उत्तर प्रदेश की राजधानी है और उसमें बहुत इज्जत और सम्मान देने वाले इंसान रहते है. वैसे यह शहर भारत देश का अंग है. जैसे हमारे शरीर में हाथ-कान है. अब इस नाचीज़ की गुस्ताखी माफ़ करते हुए आप बताये कि-आप को कैसे महसूस हुआ हम दोनों का लखनऊ से कोई रिश्ता है? मेरी विचारधारा के अनुसार 'हर एक इंसान का हर एक दुसरे इंसान से "इंसानियत" का रिश्ता है.'
जवाब देंहटाएं@हर एक इंसान का हर एक दुसरे इंसान से "इंसानियत" का रिश्ता है.'
जवाब देंहटाएंरिश्ता कायम रहे।