तुमने कहा था ना …लिखने को
हाँ कहा था तुमने…
अपने आप को लिखो
मुझे लिखो।
मैंने पहले ख़ुद को सोचा
फिर हाँ !
तुमको सोचा
सोचा
और सोचता ही गया।
फिर मैंने “हम “ को लिख दिया।
कलम से उकेर डाला
अहसास
कह डाला
जज़्बात।
हाँ तुमने कहा था ना लिखो…
तेरे अहसासों की,
छायाँ में तलाशा है मैंने….
अपना वजूद,
अपना असीम प्रेम।
तुम मेरी ज़िंदगी की, वो भोर हो ..
जो शाम ढलने के बाद,
फिर से एक, नया सवेरा लाती है।
तुम मेरे जीवन की,
तपस्या हो,
मेरे अहसासों की,
परीक्षा हो।
मेरे जीवन के,
इस पड़ाव तक की प्रतीक्षा हो।
तुम मिले भी तो,
इस कदर हावी होकर
दिमाग़ के तन्तु
और
दिल की ग्रंथियाँ
सभी तुमको सोचते हैं।
तुम जीवन का वो सार बन गये हो
जो साँसों की डोर से बँध गया है।
मेरे हर साँस में तुम्हारा बसेरा है।
महक उठता है मेरा बदन
तेरे रंगीन ख़्वाब से।
तेरी मुलाक़ात,
मुझे अक्सर तड़पाती है
जीने को मजबूर कर देती है ,
नयी उमंग के साथ।
तुम वहाँ हो ,
जहाँ मैंने कभी ख़ुद को भी नहीं जाने दिया।
दिल में बसी वो तस्वीर हो
मेरे कलम से निकली
और
किताबों में ढली,
मेरे जीवन की कविता हो।
कल कल बहती सरिता हो।
मेरा अक्स हो तुम
मेरा सब कुछ हो तुम।
तुमने कहा था ना मुझको लिखो…
लो मैंने “हम” को लिख दिया।
मनन
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