भारतीय मीडिया का "घोड़ा युग"
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अदानी ग्रुप पर हिडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद मुझसे कुछ "जागरूक"लोगों ने कहा जो काम विदेशी मीडिया/ रिसर्च फर्म ने किया वो काम भारतीय मीडिया को करना चाहिए था...मैने कहा यह कैसे संभव है...भारतीय मीडिया का तो "घोड़ा युग" चल रहा है...यह सुन कर वह चौंक पड़े.. चौंकना स्वभाविक था..यकीनन आप भी चौंक रहे होंगे..
मीडिया के मेरे सहयोगियों को यह अपमानजनक भी लग सकता है...लेकिन सच्चाई का सुविधा और अनुरूपता से तालमेल कम ही होता है...चलिए मुद्दे पर आते हैं...कहने को भारतीय मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है... मीडिया का काम लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रूप में काम करना होता है... अच्छा मीडिया वही माना जाता है जो सरकार की गलत नीतियों पर लगातार उंगलियां उठाए... देश में होने वाली गड़बड़ियों पर सवाल खड़े करे... मीडिया की ताक़त उस घोड़े की तरह होनी चाहिए जो न सिर्फ शक्ति का प्रतीक है बल्कि, उसकी आंखे 180° डिग्री तक देख सकती हैं... जिससे वो अपने आसपास की तमाम गतिविधियों पर चौकन्ना होकर नज़र रख सके... लेकिन अफसोस कि आज भारतीय मीडिया की हालत घुड़साल में बंधे उस घोड़े की तरह हो गई है...जिसकी आंखों पर सरकार और दौलतमंद कारोबारियों ने "हॉर्स ब्लाइंडर" (घोड़े की आंख पर बांधने वाली चमड़े को पट्टी, जिसे बांधने के बाद घोड़े की देखने की क्षमता 30% रह जाती है और वह उसी दिशा में देख सकता है जिस दिशा में उस पर सवार घुड़सवार उसे ले जाता है) बांध दी है...हमारे देश के मीडिया रूपी घोड़े पर भी यही पट्टी बांध दी गई है... अब हमारा "मीडियाई घोड़ा" वहीं देखता है, जो उसके "धनकुबेर" घुड़सवार दिखाना चाहते हैं ...और कोई घोड़ा अगर ऐसा न कर आसपास देखने की जुर्रत करता है तो, "घुड़सवार के हाथ में "सरकारी कोड़ा" उसे ऐसा करने से रोक देता है... लिहाज़ा जब आंखों पर पट्टी बंधे नकेल डले घोड़े की ज़रूरत होती है,तो उसे घुड़साल से निकाला जाता है... उस पर सवारी की जाती है... नकेल के जरिए उसे मनचाही सड़कों पर दौड़ाया जाता है... और जरूरत खत्म होने पर वापस घुड़साल में लाकर बांध दिया जाता है ...जिस पीढ़ी ने कभी इस घोड़े को स्वतंत्र दौड़ते देखा है वो दुखी है..कभी लोगों को इस घोड़े के स्वतंत्र रूप से दौड़ने के किस्से भी सुनाती है तो कोई इसे मानता नहीं क्योंकि...
देश की नई पीढ़ी इसी "हॉर्स ब्लाइंडर" बंधे घोड़े को देख रही है...लिहाजा वो इसे ही घोड़े का असली रूप समझ रही है..अधेड़ उम्र पीढ़ी की आंख पर तो खुद सरकार ने "हॉर्स ब्लाइंडर" बांध दिया है... फर्जी राष्ट्रवाद के सम्मोहन और धार्मिक अफ़ीम के नशे में चूर होकर वो तो खुद वही देख, सुन, समझ रहे हैं जो सरकार दिखना,बताना,जताना चाहती है..सारे देश की हालत किसी कक्ष में बैठ कर जादू देख रहे दर्शकों के उस झुंड की तरह हो गई है जिसे किसी जादूगर ने सम्मोहित कर दिया है..जादूगर कभी हाथी गायब करने का दावा करता है तो कभी टोपी से कबूतर निकलने का...और मंत्रमुग्ध दर्शक ताली पीट रहे हैं..इंतजार तो उस दिन का है जिस दिन मंत्रमुग्ध दर्शक की आंखों से पाखंडी जादूगर का सम्मोहन टूटेगा...और वो देखेंगे की उनके सामने न हाथी होगा और न कबूतर...लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी..कियूंकि तब तक जादूगर और उसके संगी साथी "झोला उठा कर" कहीं दूर जा चुके होंगे।
परवेज़ इक़बाल
संपादक:- राष्ट्रीय जनमत
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