भारतीय पिता पुत्र की जोड़ी भी बड़ी कमाल की जोड़ी होती है ।
दुनिया के किसी भी सम्बन्ध में,
अगर सबसे कम बोल-चाल है,
तो वो है पिता-पुत्र की जोड़ी में ।
एक समय तक दोनों अंजान होते हैं,
एक दूसरे के बढ़ते शरीरों की उम्र से, फिर धीरे से अहसास होता है,
हमेशा के लिए बिछड़ने का ।
जब लड़का,
अपनी जवानी पार कर,
अगले पड़ाव पर चढ़ता है,
तो यहाँ,
इशारों से बाते होने लगती हैं,
या फिर,
इनके बीच मध्यस्थ का दायित्व निभाती है माँ ।
पिता अक्सर पुत्र की माँ से कहता है,
जा, "उससे कह देना"
और,
पुत्र अक्सर अपनी माँ से कहता है,
"पापा से पूछ लो ना"
इन्हीं दोनों धुरियों के बीच,
घूमती रहती है माँ ।
जब एक,
कहीं होता है,
तो दूसरा,
वहां नहीं होने की,
कोशिश करता है,
शायद,
पिता-पुत्र नज़दीकी से डरते हैं ।
जबकि,
वो डर नज़दीकी का नहीं है,
डर है,
उसके बाद बिछड़ने का ।
भारतीय पिता ने शायद ही किसी बेटे को,
कभी कहा हो,
कि बेटा,
मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करता हूँ ।
पिता के अनंत रौद्र का उत्तराधिकारी भी वही होता है,
क्योंकि,
पिता, हर पल ज़िन्दगी में,
अपने बेटे को,
अभिमन्यु सा पाता है ।
पिता समझता है,
कि इसे सम्भलना होगा,
इसे मजबूत बनना होगा,
ताकि,
ज़िम्मेदारियो का बोझ,
इसका वध न कर सके ।
पिता सोचता है,
जब मैं चला जाऊँगा,
इसकी माँ भी चली जाएगी,
बेटियाँ अपने घर चली जायेंगी,
तब,
रह जाएगा सिर्फ ये,
जिसे, हर-दम, हर-कदम,
परिवार के लिए,
आजीविका के लिए,
बहु के लिए,
अपने बच्चों के लिए,
चुनौतियों से,
सामाजिक जटिलताओं से,
लड़ना होगा ।
पिता जानता है कि,
हर बात,
घर पर नहीं बताई जा सकती,
इसलिए इसे,
खामोशी से ग़म छुपाने सीखने होंगें ।
परिवार के विरुद्ध खड़ी,
हर विशालकाय मुसीबत को,
अपने हौसले से,
छोटा करना होगा।
ना भी कर सके,
तो ख़ुद का वध करना होगा ।
इसलिए,
वो कभी पुत्र-प्रेम प्रदर्शित नहीं करता,
पिता जानता है कि,
प्रेम कमज़ोर बनाता है ।
फिर कई बार उसका प्रेम,
झल्लाहट या गुस्सा बनकर,
निकलता है,
वो गुस्सा अपने बेटे की
कमियों के लिए नहीं होता,
वो झल्लाहट है,
जल्द निकलते समय के लिए,
वो जानता है,
उसकी मौजूदगी की,
अनिश्चितताओं को ।
पिता चाहता है,
कहीं ऐसा ना हो कि,
इस अभिमन्यु का वध,
मेरे द्वारा दी गई,
कम शिक्षा के कारण हो जाये,
पिता चाहता है कि,
पुत्र जल्द से जल्द सीख ले,
वो गलतियाँ करना बंद करे,
क्योंकि गलतियां सभी की माफ़ हैं,
पर मुखिया की नहीं,
यहाँ मुखिया का वध
सबसे पहले होता है ।
फिर,
वो समय आता है जबकि,
पिता और बेटे दोनों को,
अपनी बढ़ती उम्र का,
एहसास होने लगता है,
बेटा अब केवल बेटा नहीं, पिता भी बन चुका होता है,
कड़ी कमज़ोर होने लगती है ।
पिता की सीख देने की लालसा,
और,
बेटे का,
उस भावना को नहीं समझ पाना,
वो सौम्यता भी खो देता है,
यही वो समय होता है जब,
बेटे को लगता है कि,
उसका पिता ग़लत है,
बस इसी समय को समझदारी से निकालना होता है,
वरना होता कुछ नहीं है,
बस बढ़ती झुर्रियां और
बूढ़ा होता शरीर
जल्द बीमारियों को घेर लेता है ।
फिर,
सभी को बेटे का इंतज़ार करते हुए माँ तो दिखती है,
पर,
पीछे रात भर से जागा,
पिता नहीं दिखता,
पिता की उम्र और झुर्रियां,
और बढ़ती जाती है ।
ये समय चक्र है,
जो बूढ़ा होता शरीर है बाप के रूप में उसे एक और बूढ़ा शरीर झांकता है आसमान से,
जो इस बूढ़े होते शरीर का बाप है,
कब समझेंगे बेटे,
कब समझेंगे बाप,
कब समझेगी दुनिया..
ये इतने भी मजबूत नहीं,
पता है क्या होता है,
उस आख़िरी मुलाकात में,
जब,
जिन हाथों की उंगलियां पकड़,
पिता ने चलना सिखाया था,
वही हाथ,
लकड़ी के ढेर पर पड़े
पिता को
लकड़ियों से ढकते हैं,
उसे तेल से भिगोते हैं,
और उसे जलाते हैं,
ये कोई पुरुषवादी समाज की
चाल नहीं है,
ये सौभाग्य भी नहीं है,
ये बेटा होने का,
सबसे बड़ा अभिशाप है ।
ये होता है,
हो रहा है,
होता चला जाएगा ।
जो नहीं हो रहा,
और जो हो सकता है,
वो ये,
कि,
हम जल्द से जल्द,
कहना शुरु कर दें,
हम आपस में,
कितना प्यार करते हैं.
हे मेरे महान पिता..
मेरे गौरव,
मेरे आदर्श,
मेरा संस्कार,
मेरा स्वाभिमान,
मेरा अस्तित्व...
मैं न तो इस क्रूर समय की गति को समझ पाया..
और न ही,
आपको अपने दिल की बात,
कह पाया......
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