जब तुम मेरा ख़त पढ़ोगी
अल्फ़ाज़ के वक्फों में बैठा
मैं देख रहा होंगा तुमको
पढ़ते-पढ़ते भवें चढ़ेंगी एक बार तो
फिर होठों के कोनों पर एक हल्की सी मुस्कान आकर रुक जाएगी
और तुम्हारी आदत को मैं जानता हूं
छोटी सी ज़बां होठों पर आकर फिर ग़ायब हो जाएगी
फिर सांस की लय में फर्क़ आएगा
दरवाज़े की जानिब मुड़कर देखोगी
कोई आया तो नहीं
फिर पढ़ने लगोगी, शिकन माथे की और गहरी हो जाएगी
आहिस्ता आहिस्ता आंखों में भर आएंगे आंसू
आंसू पोंछ के कुछ जुमले दो बार पढ़ोगी
कि आंसू लफ्ज़ों के वक्फों में आकर टपकेंगे
अब इससे ज़्यादा क्या समझाऊं दोनों एक फ़लक पर हैं हम
शाम की सुर्ख शफ़क़ हूं मैं, तुम सुबह की लाली हो
तुम्हें तो फ़लक़ चढ़ना है अभी
मैं कुछ देर में ओझल हा जाऊंगा
इससे ज़्यादा क्या समझाऊं…?
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