﴾ 21 ﴿ आप विचार करें कि कैसे हमने (संसार में) उनमें से कुछ को कुछ पर प्रधानता दी है और निश्चय परलोक के पद और प्रधानता और भी अधिक होगी।
﴾ 22 ﴿ (हे मानव!) अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य न बना, अन्यथा बुरा और असहाय होकर रह जायेगा।
﴾ 23 ﴿ और (हे मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों में से एक वृध्दावस्था को पहुँच जाये अथवा दोनों, तो उन्हें उफ़ तक न कहो और न झिड़को और उनसे सादर बात बोलो।
﴾ 24 ﴿ और उनके लिए विनम्रता का बाज़ू दया से झुका[1] दो और प्रार्थना करोः हे मेरे पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन दोनों ने बाल्यावस्था में, मेरा लालन-पालन किया है।
1. अर्थात उन के साथ विनम्रता और दया का व्यवहार करो।
﴾ 25 ﴿ तुम्हारा पालनहार अधिक जानता है, जो कुछ तुम्हारी अन्तरात्माओं (मन) में है। यदि तुम सदाचारी रहे, तो वह अपनी ओर ध्यानमग्न रहने वालों के लिए अति क्षमावान् है।
﴾ 26 ﴿ और समीपवर्तियों को उनका स्वत्व (हिस्सा) दो तथा दरिद्र और यात्री को और अपव्यय[1] न करो।
1. अर्थात अपरिमित और दुष्कर्म में ख़र्च न करो।
﴾ 27 ﴿ वास्तव में, अपव्ययी शैतान के भाई हैं और शैतान अपने पालनहार का अति कृतघ्न है।
﴾ 28 ﴿ और यदि आप उनसे विमुख हों, अपने पालनहार की दया की खोज के लिए जिसकी आशा रखते हों, तो उनसे सरल[1] बात बोलें।
1. अर्थात उन्हें सरलता से समझा दें कि अभी कुछ नहीं है। जैसे ही कुछ आया तुम्हें अवश्य दूँगा।
﴾ 29 ﴿ और अपना हाथ अपनी गर्दन से न बाँध[1] लो और न उसे पूरा खोल दो कि निन्दित, विवश होकर रह जाओ।
1. हाथ बाँधने और खोलने का अर्थ है, कृपण तथा अपव्यय करना। इस में व्यय और दान में संतुलन रखने की शिक्षा दी गयी है।
﴾ 30 ﴿ वास्तव में, आपका पालनहार ही विस्तृत कर देता है जीविका को जिसके लिए चाहता है, तथा संकीर्ण कर देता है। वास्तव में, वही अपने दासों (बंदों) से अति सूचित[1] देखने वाला[2] है।
1. अर्थात वह सब की दशा और कौन किस के योग्य है देखता और जानता है। 2. ह़दीस में है शिर्क के बाद सब से बड़ा पाप अपनी संतान को खिलाने के भय से मार डालना है। (बुख़ारीः4477, मुस्लिमः 86)
﴾ 22 ﴿ (हे मानव!) अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य न बना, अन्यथा बुरा और असहाय होकर रह जायेगा।
﴾ 23 ﴿ और (हे मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों में से एक वृध्दावस्था को पहुँच जाये अथवा दोनों, तो उन्हें उफ़ तक न कहो और न झिड़को और उनसे सादर बात बोलो।
﴾ 24 ﴿ और उनके लिए विनम्रता का बाज़ू दया से झुका[1] दो और प्रार्थना करोः हे मेरे पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन दोनों ने बाल्यावस्था में, मेरा लालन-पालन किया है।
1. अर्थात उन के साथ विनम्रता और दया का व्यवहार करो।
﴾ 25 ﴿ तुम्हारा पालनहार अधिक जानता है, जो कुछ तुम्हारी अन्तरात्माओं (मन) में है। यदि तुम सदाचारी रहे, तो वह अपनी ओर ध्यानमग्न रहने वालों के लिए अति क्षमावान् है।
﴾ 26 ﴿ और समीपवर्तियों को उनका स्वत्व (हिस्सा) दो तथा दरिद्र और यात्री को और अपव्यय[1] न करो।
1. अर्थात अपरिमित और दुष्कर्म में ख़र्च न करो।
﴾ 27 ﴿ वास्तव में, अपव्ययी शैतान के भाई हैं और शैतान अपने पालनहार का अति कृतघ्न है।
﴾ 28 ﴿ और यदि आप उनसे विमुख हों, अपने पालनहार की दया की खोज के लिए जिसकी आशा रखते हों, तो उनसे सरल[1] बात बोलें।
1. अर्थात उन्हें सरलता से समझा दें कि अभी कुछ नहीं है। जैसे ही कुछ आया तुम्हें अवश्य दूँगा।
﴾ 29 ﴿ और अपना हाथ अपनी गर्दन से न बाँध[1] लो और न उसे पूरा खोल दो कि निन्दित, विवश होकर रह जाओ।
1. हाथ बाँधने और खोलने का अर्थ है, कृपण तथा अपव्यय करना। इस में व्यय और दान में संतुलन रखने की शिक्षा दी गयी है।
﴾ 30 ﴿ वास्तव में, आपका पालनहार ही विस्तृत कर देता है जीविका को जिसके लिए चाहता है, तथा संकीर्ण कर देता है। वास्तव में, वही अपने दासों (बंदों) से अति सूचित[1] देखने वाला[2] है।
1. अर्थात वह सब की दशा और कौन किस के योग्य है देखता और जानता है। 2. ह़दीस में है शिर्क के बाद सब से बड़ा पाप अपनी संतान को खिलाने के भय से मार डालना है। (बुख़ारीः4477, मुस्लिमः 86)
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