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22 जून 2020

ऐसे भी जिंदगी से निभाना पड़ा मुझे।

गज़ल:- हलीम " रैहान " एडवोकेट
ऐसे भी जिंदगी से निभाना पड़ा मुझे।
रूठा तो खुद ही खुद को मना ना पड़ा मुझे।
भाई ने एक दिन यूहीं दहलीज लांघ ली।
फिर यूं - हुवा दीवार गिराना पड़ा मुझे।
सूरज की पार साई अबस रास आगई।
रातों के हादसात भुलाना पड़ा मुझे।
एक राह रो को राह दिखाने के वास्ते।
मानिंद-ए-दीप घर को जलाना पड़ा मुझे।
"रैहान" अब दिलों के रिश्ते कहां रहे।
ज़हनो में बसना और बसाना पड़ा मुझे।

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