﴾ 101 ﴿ और जब तुम धरती में यात्रा करो, तो नमाज़[1] क़स्र (संक्षिप्त) करने में तुमपर कोई दोष नहीं, यदि तुम्हें डर हो कि काफ़िर तुम्हें सतायेंगे। वास्तव में, काफ़िर तुम्हारे खुले शत्रु हैं।
1. क़स्र का अर्थ चार रक्अत वाली नमाज़ को दो रक्अत पढ़ना है। यह अनुमति प्रत्येक यात्रा के लिये है, शत्रु का भय हो, या न हो।
﴾ 102 ﴿ तथा (हे नबी!) जब आप (रणक्षेत्र में) उपस्थित हों और उनके लिए नमाज़ की स्थापना करें, तो उनका एक गिरोह आपके साथ खड़ा हो जाये और अपने अस्त्र-शस्त्र लिए रहें और जब वे सज्दा कर लें, तो तुम्हारे पीछे हो जायें तथा दूसरा गिरोह आये, जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी है और आपके साथ नमाज़ पढ़ें और अपने अस्त्र-शस्त्र लिए रहें। काफ़िर चाहते हैं कि तुम अपने शस्त्रों से निश्चेत हो जाओ, तो तुमपर यकायक धावा बोल दें। फिर तुमपर कोई दोष नहीं, यदि वर्षा के कारण तुम्हें दुःख हो अथवा तुम रोगी रहो कि अपने शस्त्र[1] उतार दो तथा अपने बचाव का ध्यान रखो। निःसंदेह अल्लाह ने काफ़िरों के लिए अपमानकारी यातना तैयार कर रखी है।
1. इस का नाम “सलातुल ख़ौफ़” अर्थात भय के समय की नमाज़ है। जब रणक्षेत्र में प्रत्येक समय भय लगा रहे, तो उस (समय नमाज़ पढ़ने) की विधि यह है कि सेना के दो भाग कर लें। एक भाग को नमाज़ पढ़ायें, तथा दूसरा शत्रु के सम्मुख खड़ा रहे, फिर (पहले गिरोह के एक रक्अत पूरी होने के बाद) दूसरा आये और नमाज़ पढ़े। इस प्रकार प्रत्येक गिरोह की एक रक्अत और इमाम की दो रक्अत होंगी। ह़दीसों में इस की और भी विधियाँ आईं हैं। और यह युध्द की स्थितियों पर निर्भर है।
﴾ 103 ﴿ फिर जब तुम नमाज़ पूरी कर लो, तो खड़े, बैठे, लेटे प्रत्येक स्थिति में अल्लाह का स्मरण करो और जब तुम शान्त हो जाओ, तो पूरी नमाज़ पढ़ो। निःसंदेह, नमाज़ ईमान वालों पर निर्धारित समय पर अनिवार्य की गयी है।
﴾ 104 ﴿ तथा तुम (शत्रु) जाति का पीछा करने में सिथिल न बनो, यदि तुम्हें दुःख पहुँचा है, तो तुम्हारे समान उन्हें भी दुःख पहुँचा है तथा तुम अल्लाह से जो आशा[1] रखते हो, वो आशा वे नहीं रखते तथा अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है।
1. अर्थात प्रतिफल तथा सहायता और समर्थन की।
﴾ 105 ﴿ (हे नबी!) हमने आपकी ओर इस पुस्तक (क़ुर्आन) को सत्य के साथ उतारा है, ताकि आप, लोगों के बीच उसके अनुसार निर्णय करें, जो अल्लाह ने आपको बताया है, और आप विश्वासघातियों के पक्षधर न[1] बनें।
1. यहाँ से, अर्थात आयत 105 से 113 तक, के विषय में भाष्यकारों ने लिखा है कि एक व्यक्ति ने एक अन्सारी की कवच (ज़िरह) चुरा ली। और जब देखा कि उस का भेद खुल जायेगा, तो उस का आरोप एक यहूदी पर लगा दिया। और उस के क़बीले के लोग भी उस के पक्षधर हो गये। और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आये, और कहा कि आप इसे निर्दोष घोषित कर दें। और उन की बातों के कारण समीप था कि आप उसे निर्दोष घोषित कर के यहूदी को अपराधी बना देते कि आप को सावधान करने के लिये यह आयतें उतरीं। (इब्ने जरीर) इन आयतों का साधारण भावार्थ यह है कि मुसलमान न्यायधीश को चाहीये कि किसी पक्ष का इस लिये पक्षपात न करे कि वह मुसलमान है। और दूसरा मुसलमान नहीं है, बल्कि उसे हर ह़ाल में निष्पक्ष हो कर न्याय करना चाहीये।
﴾ 106 ﴿ तथा अल्लाह से क्षमा याचना करते रहें, निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
﴾ 107 ﴿ और उनका पक्ष न लें, जो स्वयं अपने साथ विश्वासघात करते हों, निःसंदेह अल्लाह विश्वासघाती, पापी से प्रेम नहीं करता[1]।
1. आयत का भावार्थ यह है कि न्यायधीश को ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, जिस में किसी का पक्षपात हो।
﴾ 108 ﴿ वे (अपने करतूत) लोगों सो छुपा सकते हैं,परन्तु अल्लाह से नहीं छुपा सकते और वह उनके साथ होता है, जब वे रात में उस बात का परामर्श करते हैं, जिससे वह प्रसन्न नहीं[1] होता तथा अल्लाह उसे घेरे हुए है, जो वे कर रहे हैं।
1. आयत का भावार्थ यह है कि मुसलमानों को अपना सहधर्मी अथवा अपनी जाति या परिवार का होने के कारण किसी अपराधी का पक्षपात नहीं करना चाहिये। क्योंकि संसार न जाने, परन्तु अल्लाह तो जानता है कि कौन अपराधी है, कौन नहीं।
﴾ 109 ﴿ सुनो! तुम ही वो हो कि सांसारिक जीवन में उनकी ओर से झगड़ लिए। तो परलय के दिन उनकी ओर से कौन अल्लाह से झगड़ेगा और कौन उनका अभिभाषक (प्रतिनिधि) होगा?
﴾ 110 ﴿ जो व्यक्ति कोई कुकर्म करेगा अथवा अपने ऊपर अत्याचार करेगा, फिर अल्लाह से क्षमा याचना करेगा, तो वह उसे अति क्षमी दयावान् पायेगा।
1. क़स्र का अर्थ चार रक्अत वाली नमाज़ को दो रक्अत पढ़ना है। यह अनुमति प्रत्येक यात्रा के लिये है, शत्रु का भय हो, या न हो।
﴾ 102 ﴿ तथा (हे नबी!) जब आप (रणक्षेत्र में) उपस्थित हों और उनके लिए नमाज़ की स्थापना करें, तो उनका एक गिरोह आपके साथ खड़ा हो जाये और अपने अस्त्र-शस्त्र लिए रहें और जब वे सज्दा कर लें, तो तुम्हारे पीछे हो जायें तथा दूसरा गिरोह आये, जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी है और आपके साथ नमाज़ पढ़ें और अपने अस्त्र-शस्त्र लिए रहें। काफ़िर चाहते हैं कि तुम अपने शस्त्रों से निश्चेत हो जाओ, तो तुमपर यकायक धावा बोल दें। फिर तुमपर कोई दोष नहीं, यदि वर्षा के कारण तुम्हें दुःख हो अथवा तुम रोगी रहो कि अपने शस्त्र[1] उतार दो तथा अपने बचाव का ध्यान रखो। निःसंदेह अल्लाह ने काफ़िरों के लिए अपमानकारी यातना तैयार कर रखी है।
1. इस का नाम “सलातुल ख़ौफ़” अर्थात भय के समय की नमाज़ है। जब रणक्षेत्र में प्रत्येक समय भय लगा रहे, तो उस (समय नमाज़ पढ़ने) की विधि यह है कि सेना के दो भाग कर लें। एक भाग को नमाज़ पढ़ायें, तथा दूसरा शत्रु के सम्मुख खड़ा रहे, फिर (पहले गिरोह के एक रक्अत पूरी होने के बाद) दूसरा आये और नमाज़ पढ़े। इस प्रकार प्रत्येक गिरोह की एक रक्अत और इमाम की दो रक्अत होंगी। ह़दीसों में इस की और भी विधियाँ आईं हैं। और यह युध्द की स्थितियों पर निर्भर है।
﴾ 103 ﴿ फिर जब तुम नमाज़ पूरी कर लो, तो खड़े, बैठे, लेटे प्रत्येक स्थिति में अल्लाह का स्मरण करो और जब तुम शान्त हो जाओ, तो पूरी नमाज़ पढ़ो। निःसंदेह, नमाज़ ईमान वालों पर निर्धारित समय पर अनिवार्य की गयी है।
﴾ 104 ﴿ तथा तुम (शत्रु) जाति का पीछा करने में सिथिल न बनो, यदि तुम्हें दुःख पहुँचा है, तो तुम्हारे समान उन्हें भी दुःख पहुँचा है तथा तुम अल्लाह से जो आशा[1] रखते हो, वो आशा वे नहीं रखते तथा अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है।
1. अर्थात प्रतिफल तथा सहायता और समर्थन की।
﴾ 105 ﴿ (हे नबी!) हमने आपकी ओर इस पुस्तक (क़ुर्आन) को सत्य के साथ उतारा है, ताकि आप, लोगों के बीच उसके अनुसार निर्णय करें, जो अल्लाह ने आपको बताया है, और आप विश्वासघातियों के पक्षधर न[1] बनें।
1. यहाँ से, अर्थात आयत 105 से 113 तक, के विषय में भाष्यकारों ने लिखा है कि एक व्यक्ति ने एक अन्सारी की कवच (ज़िरह) चुरा ली। और जब देखा कि उस का भेद खुल जायेगा, तो उस का आरोप एक यहूदी पर लगा दिया। और उस के क़बीले के लोग भी उस के पक्षधर हो गये। और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आये, और कहा कि आप इसे निर्दोष घोषित कर दें। और उन की बातों के कारण समीप था कि आप उसे निर्दोष घोषित कर के यहूदी को अपराधी बना देते कि आप को सावधान करने के लिये यह आयतें उतरीं। (इब्ने जरीर) इन आयतों का साधारण भावार्थ यह है कि मुसलमान न्यायधीश को चाहीये कि किसी पक्ष का इस लिये पक्षपात न करे कि वह मुसलमान है। और दूसरा मुसलमान नहीं है, बल्कि उसे हर ह़ाल में निष्पक्ष हो कर न्याय करना चाहीये।
﴾ 106 ﴿ तथा अल्लाह से क्षमा याचना करते रहें, निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
﴾ 107 ﴿ और उनका पक्ष न लें, जो स्वयं अपने साथ विश्वासघात करते हों, निःसंदेह अल्लाह विश्वासघाती, पापी से प्रेम नहीं करता[1]।
1. आयत का भावार्थ यह है कि न्यायधीश को ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, जिस में किसी का पक्षपात हो।
﴾ 108 ﴿ वे (अपने करतूत) लोगों सो छुपा सकते हैं,परन्तु अल्लाह से नहीं छुपा सकते और वह उनके साथ होता है, जब वे रात में उस बात का परामर्श करते हैं, जिससे वह प्रसन्न नहीं[1] होता तथा अल्लाह उसे घेरे हुए है, जो वे कर रहे हैं।
1. आयत का भावार्थ यह है कि मुसलमानों को अपना सहधर्मी अथवा अपनी जाति या परिवार का होने के कारण किसी अपराधी का पक्षपात नहीं करना चाहिये। क्योंकि संसार न जाने, परन्तु अल्लाह तो जानता है कि कौन अपराधी है, कौन नहीं।
﴾ 109 ﴿ सुनो! तुम ही वो हो कि सांसारिक जीवन में उनकी ओर से झगड़ लिए। तो परलय के दिन उनकी ओर से कौन अल्लाह से झगड़ेगा और कौन उनका अभिभाषक (प्रतिनिधि) होगा?
﴾ 110 ﴿ जो व्यक्ति कोई कुकर्म करेगा अथवा अपने ऊपर अत्याचार करेगा, फिर अल्लाह से क्षमा याचना करेगा, तो वह उसे अति क्षमी दयावान् पायेगा।

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