और हम उनके दिल और उनकी आँखें उलट पलट कर देंगे जिस तरह ये लोग कु़रान पर
पहली मरतबा ईमान न लाए और हम उन्हें उनकी सरकशी की हालत में छोड़ देंगे कि
सरगिरदाँ (परेशान) रहें (111)
और (ऐ रसूल सच तो ये है कि) हम अगर उनके पास फ़रिश्ते भी नाजि़ल करते और उनसे मुर्दे भी बातें करने लगते और तमाम (मख़फ़ी(छुपी)) चीज़ें (जैसे जन्नत व नार वग़ैरह) अगर वह गिरोह उनके सामने ला खड़े करते तो भी ये ईमान लाने वाले न थे मगर जब अल्लाह चाहे लेकिन उनमें के अक्सर नहीं जानते (112)
कि और (ऐ रसूल जिस तरह ये कुफ़्फ़ार तुम्हारे दुष्मन हैं) उसी तरह (गोया हमने ख़़ुद आज़माइश के लिए शरीर आदमियों और जिनों को हर नबी का दुश्मन बनाया वह लोग एक दूसरे को फरेब देने की ग़रज़ से चिकनी चुपड़ी बातों की सरग़ोशी करते हैं और अगर तुम्हारा परवरदिगार चाहता तो ये लोग) ऐसी हरकत करने न पाते (113)
तो उनको और उनकी इफ़तेरा परदाजि़यों को छोड़ दो और ये (ये सरग़ोषियाँ इसलिए थीं) ताकि जो लोग आखि़रत पर इमान नहीं लाए उनके दिल उन (की शरारत) की तरफ मायल (खिच) हो जाएँ और उन्हें पसन्द करें (114)
और ताकि जो लोग इफ़तेरा परदाजि़याँ ये लोग ख़ुद करते हैं वह भी करने लगें (क्या तुम ये चाहते हो कि) मैं ख़ुदा को छोड़ कर किसी और को सालिस तलाश करुँ हालाँकि वह वही ख़ुदा है जिसने तुम्हारे पास वाज़ेए किताब नाजि़ल की और जिन लोगों को हमने किताब अता फरमाई है वह यक़ीनी तौर पर जानते हैं कि ये (कु़रान) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से बरहक़ नाजि़ल किया गया है (115)
तो तुम (कहीं) शक करने वालों से न हो जाना और सच्चाई और इन्साफ में तो तुम्हारे परवरदिगार की बात पूरी हो गई कोई उसकी बातों का बदलने वाला नहीं और वही बड़ा सुनने वाला वाकि़फकार है (116)
और (ऐ रसूल) दुनिया में तो बहुतेरे लोग ऐसे हैं कि तुम उनके कहने पर चलो तो तुमको ख़ुदा की राह से बहका दें ये लोग तो सिर्फ अपने ख़्यालात की पैरवी करते हैं और ये लोग तो बस अटकल पच्चू बातें किया करते हैं (117)
(तो तुम क्या जानों) जो लोग उसकी राह से बहके हुए हैं उनको (कुछ) ख़ुदा ही ख़ूब जानता है और वह तो हिदायत याफ्ता लोगों से भी ख़ूब वाकि़फ है (118)
तो अगर तुम उसकी आयतों पर ईमान रखते हो तो जिस ज़ीबह पर (वक़्ते जि़बाह) ख़ुदा का नाम लिया गया हो उसी को खाओ (119)
और तुम्हें क्या हो गया है कि जिस पर ख़़ुदा का नाम लिया गया हो उसमें नहीं खाते हो हालाँकि जो चीज़ें उसने तुम पर हराम कर दीं हैं वह तुमसे तफसीलन बयान कर दीं हैं मगर (हाँ) जब तुम मजबूर हो तो अलबत्ता (हराम भी खा सकते हो) और बहुतेरे तो (ख़्वाहमख़्वाह) अपनी नफसानी ख़्वाहिशो से बे समझे बूझे (लोगों को) बहका देते हैं और तुम्हारा परवरदिगार तो हक़ से तजाविज़ करने वालों से ख़ूब वाकि़फ है (120)
और (ऐ रसूल सच तो ये है कि) हम अगर उनके पास फ़रिश्ते भी नाजि़ल करते और उनसे मुर्दे भी बातें करने लगते और तमाम (मख़फ़ी(छुपी)) चीज़ें (जैसे जन्नत व नार वग़ैरह) अगर वह गिरोह उनके सामने ला खड़े करते तो भी ये ईमान लाने वाले न थे मगर जब अल्लाह चाहे लेकिन उनमें के अक्सर नहीं जानते (112)
कि और (ऐ रसूल जिस तरह ये कुफ़्फ़ार तुम्हारे दुष्मन हैं) उसी तरह (गोया हमने ख़़ुद आज़माइश के लिए शरीर आदमियों और जिनों को हर नबी का दुश्मन बनाया वह लोग एक दूसरे को फरेब देने की ग़रज़ से चिकनी चुपड़ी बातों की सरग़ोशी करते हैं और अगर तुम्हारा परवरदिगार चाहता तो ये लोग) ऐसी हरकत करने न पाते (113)
तो उनको और उनकी इफ़तेरा परदाजि़यों को छोड़ दो और ये (ये सरग़ोषियाँ इसलिए थीं) ताकि जो लोग आखि़रत पर इमान नहीं लाए उनके दिल उन (की शरारत) की तरफ मायल (खिच) हो जाएँ और उन्हें पसन्द करें (114)
और ताकि जो लोग इफ़तेरा परदाजि़याँ ये लोग ख़ुद करते हैं वह भी करने लगें (क्या तुम ये चाहते हो कि) मैं ख़ुदा को छोड़ कर किसी और को सालिस तलाश करुँ हालाँकि वह वही ख़ुदा है जिसने तुम्हारे पास वाज़ेए किताब नाजि़ल की और जिन लोगों को हमने किताब अता फरमाई है वह यक़ीनी तौर पर जानते हैं कि ये (कु़रान) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से बरहक़ नाजि़ल किया गया है (115)
तो तुम (कहीं) शक करने वालों से न हो जाना और सच्चाई और इन्साफ में तो तुम्हारे परवरदिगार की बात पूरी हो गई कोई उसकी बातों का बदलने वाला नहीं और वही बड़ा सुनने वाला वाकि़फकार है (116)
और (ऐ रसूल) दुनिया में तो बहुतेरे लोग ऐसे हैं कि तुम उनके कहने पर चलो तो तुमको ख़ुदा की राह से बहका दें ये लोग तो सिर्फ अपने ख़्यालात की पैरवी करते हैं और ये लोग तो बस अटकल पच्चू बातें किया करते हैं (117)
(तो तुम क्या जानों) जो लोग उसकी राह से बहके हुए हैं उनको (कुछ) ख़ुदा ही ख़ूब जानता है और वह तो हिदायत याफ्ता लोगों से भी ख़ूब वाकि़फ है (118)
तो अगर तुम उसकी आयतों पर ईमान रखते हो तो जिस ज़ीबह पर (वक़्ते जि़बाह) ख़ुदा का नाम लिया गया हो उसी को खाओ (119)
और तुम्हें क्या हो गया है कि जिस पर ख़़ुदा का नाम लिया गया हो उसमें नहीं खाते हो हालाँकि जो चीज़ें उसने तुम पर हराम कर दीं हैं वह तुमसे तफसीलन बयान कर दीं हैं मगर (हाँ) जब तुम मजबूर हो तो अलबत्ता (हराम भी खा सकते हो) और बहुतेरे तो (ख़्वाहमख़्वाह) अपनी नफसानी ख़्वाहिशो से बे समझे बूझे (लोगों को) बहका देते हैं और तुम्हारा परवरदिगार तो हक़ से तजाविज़ करने वालों से ख़ूब वाकि़फ है (120)
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