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21 अक्तूबर 2015

ईमाम हुसैन के बलिदान की एक मात्र गवाह कर्बला की भूमि

ईमाम हुसैन के बलिदान की एक
मात्र गवाह कर्बला की भूमि आज
भी 1400 साल पहले हुए उस
दर्दनाक वाकियें से सहम उठती है
जब हर साल लाखो की संख्या में
श्रद्धालु मुहर्रम के महीने में
कर्बला आते है और ईमाम हुसैन को सलाम पेश
करते है। शायद यह दुनिया का पहला और
आखिरी वाकिया ही होगा
जिसमे किसी शाही
परिवार का एक राजकुमार सत्य और आस्था के लिए
न सिर्फ अपनी और अपने परिवार
की बल्कि अपने हर सांसारिक आराम
की कुर्बानी देते हुए
अपनी जान दे दी।
मुहर्रम कोई पर्व नहीं बल्कि एक
श्रधांजलि है ईमाम हुसैन और उनके 72 साथियों
को जिन्होंने यज़ीद की
ताकतवर फ़ौज का सामना कर दुनिया के सामने
आतंकवाद की खिलाफ लड़ने का
शानदार नमूना पेश किया। योद्धा हर
सदी में हुए, हर धर्म में हुए और
हर देश में हुए परन्तु दुनिया में ईमाम हुसैन
ही ऐसे महान योद्धा थे जिन्होंने
अपने बलिदान को जीत में बदल
फनाफिल्लाह ( अल्लाह पर सब कुर्बान ) के पद
को पा लिया था जो अध्यात्म की सबसे
ऊँची और मुश्किल स्थिति है जहाँ
सिर्फ रब (ईश्वर) और बंदा होता है।
अपने 6 महीने के नन्हे बेटे
अली असग़र और 18 वर्ष के जवान
बेटे अली अकबर से लेकर अपने भाई
अब्बास इब्ने अली और अपने
भतीजे कासिम इब्ने हसन तक
इमाम हुसैन नें बलिदान की हर
सीमा को पार कर दिया और न सिर्फ
अपने मुस्लिम अनुयायियों को बल्कि हर एक इंसान
को बताया कि युद्ध जो बलिदान और त्याग से
जीता जाये वही सर्वोपरि
है और ईश्वर से बड़ा और ताकतवर कोई
नहीं हो सकता।
कौन थे ईमाम हुसैन ईमाम हुसैन, ईस्लाम के
पैगम्बर मुहम्मद रसूलुल्लाह के नवासे और
हज़रत अली और फ़ातेमा के छोटे बेटे
थे, हुसैन के बड़े भाई इमाम हसन थे।
कौन था यज़ीद यज़ीद
उम्मैयाद वंश के पहले खलीफा
मुआविया का बेटा था और अपने पिता की
मौत के बाद सीरिया का बादशाह बना।
वह क्रूर और अय्याश था और उसे सत्ता का मोह
था।
कर्बला का युद्ध शाम (आज का
सीरिया ) का बादशाह
यज़ीद अपने वर्चस्व को पूरे अरब में
फैलाना चाहता था जिसके लिए उसके सामने सबसे
बड़ी चुनौती
थी पैगम्बर मुहम्मद के खानदान का
इकलौता चिराग ईमाम हुसैन जो किसी
भी हालत में यज़ीद के
सामने झुकने को तैयार नहीं थे। इमाम
हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ
मदीना से इराक के शहर कुफा जाने
लगे पर रास्ते में यजीद
की फ़ौज नें कर्बला के रेगिस्तान पर
इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया, वह 2
मुहर्रम का दिन था जब हुसैन का काफिला कर्बला
के तपते रेगिस्तान पर रुका वहां पानी
का इकमात्र स्त्रोत फरात नदी
थी जिस पर यज़ीद
की फ़ौज नें 6 मुहर्रम से हुसैन के
काफिले पर पानी की रोक
लगा दी थी।
यज़ीद के प्रतिनिधियों की
ईमाम हुसैन को झुकाने की हर
कोशिश नाकाम होती
रही और आखिर में युद्ध का एलान
हुआ, इतिहास कहता है कि यज़ीद
की 80000 की फ़ौज
के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग
की उसकी मिसाल खुद
दुश्मन फ़ौज के सिपाही एक दुसरे को
देने लेगे परन्तु हुसैन जंग जीतने
नहीं बल्कि अपने आप को अल्लाह
की राह में त्यागने आये थे। अपने
नाना और पिता के सिखाये हुए सदाचार, उच्च विचार,
अध्यात्म, और अल्लाह से बे पनाह मुहब्बत
नें प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा पर
विजय प्राप्त की। दस मुहर्रम का
दिन हुसैन अपने बच्चों, भाईयों और अपने साथियों
के शवो को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले
युद्ध किया पर दुश्मन उन्हें मार
नहीं सका।
आखिर में अस्र की नमाज़ के वक़्त
जब इमाम हुसैन अल्लाह को सजदा कर रहे थे
तब एक यज़ीदी को लगा
की शायद यही
सही मौका है हुसैन को मारने का
और उसने धोखे से हुसैन को शहीद
कर दिया। ईमाम हुसैन मर कर भी
जिंदा रहे और यज़ीदियत
जीत कर भी हार
गयी। अरब में क्रांति आई, हर रूह
कांप उठी और हर आँखों से आँसू
निकल आये जब ईमाम हुसैन के काफिले में जिंदा
बची उनकी बहिन
जैनब नें उनके साथ हुई कर्बला की
त्रासदी को बताया।
सरकार हजरत खाव्जा मोईनुद्दीन
चिश्ती (रजी)ने कहा
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीं अस्त हुसैन, दीं
पनाह अस्त हुसैन, सर दाद न दाद दस्त, दर
दस्त-ए-यजीद हक्का के बिना ला
इला हा अस्त हुसैन ………. हुसैन बादशाह है,
बादशाहों के बादशाह है आस्था हुसैन से है,
आस्था के निगहबान हुसैन है अपना सर दे दिया,
नहीं दिया अपना हाथ
यज़ीद के हाथ में बेशक,
आस्था का दर्पण हुसैन ह

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