पुणे. पिछले कुछ सालों से सूखे और कम बारिश का कहर झेल रहे
महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में आर्टिफिशियल रेनिंग (कृत्रिम बारिश) कराने
की पहली कोशिश फेल हो गई है। सोमवार सुबह नासिक जिले की येवला तहसील में
आर्टिफिशियल रेन प्रॉसेस शुरू की गई थी। ड्राय आइस से लोडेड कुल पांच रॉकेट
छोड़े गए। इनमें से तीन फेल हो गए। दो रॉकेट सक्सेसफुल जरूर रहे, लेकिन
इसके बाद भी जब दोपहर 12 बजे तक बारिश नहीं हुई तो एडमिनिस्ट्रेशन ने मान
लिया कि यह कोशिश कामयाब नहीं हो पाई। बता दें कि आर्टिफिशियल रेनिंग की
कोशिश करने वाला महाराष्ट्र देश का पहला राज्य है। यहां विदर्भ और नॉर्थ
महाराष्ट्र में किसान सूखे के कारण खुदकुशी कर चुके हैं।
नासिक और औरंगाबाद में कोशिश
नासिक के साथ ही औरंगाबाद में भी आर्टिफिशियल रेनिंग के लिए 4 किंग
एयरबी-200 प्लेन मंगाए गए हैं। इनके अलावा, क्लाउड एनालिसिस के लिए सी-बैंड
डॉप्लर रडार भी अमेरिका से मंगलवार को यहां पहुंच जाएगा। जिन रॉकेट्स को
हवा में छोड़ा गया, उनमें ड्राय आइस था। यह ड्राय आइस एटमॉस्फियर में घुलकर
क्लाउड सीडिंग करता है। औरंगाबाद के कमिश्नर डॉक्टर उमाकांत दांगट के
मुताबिक, औरंगाबाद में आर्टिफिशियल रेन के लिए कोशिश मंगलवार को की जाएगी।
डॉप्लर रडार का वजन 1500 किलोग्राम है। इसे कमिश्नर ऑफिस की छत पर इन्स्टॉल
किया जाएगा और यहीं इसका कंट्रोल रूम भी बनाया जाने वाला है। आर्टिफिशियल
रेनिंग के लिए फॉरेन कंपनियों को हायर किया गया है। चीन में इसी तरह से
बारिश कराई जाती रही है। आर्टिफिशियल रेनिंग में 50 से ज्यादा देश कामयाबी
हासिल कर चुके हैं। 1946 में यह टेक्नोलॉजी सामने आई थी।
कैसे होती है क्लाउड सीडिंग से बारिश
क्लाउड सीडिंग के लिए एयरक्राफ्ट से सिल्वर आयोडीन (जिसे ड्राय आइस भी
कहा जाता है) को बादलों के बीच स्प्रे किया जाता है। ये सिल्वर आयोडीन
बादलों में मौजूद पानी की बूंदों को अपनी ओर अट्रैक्ट करती है। बादलों में
पानी की जो बूंदें मौजूद रहती हैं, सिल्वर आयोडीन के टच में आने के बाद
बड़ी ड्रॉप्स में बदल जाती है। बाद में यही ड्रॉप्स बारिश के रूप में जमीन
पर गिरती हैं। इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल काफी पहले से किया जाता रहा है,
लेकिन इसे कभी भी 100 शत-प्रतिशत सफलता नहीं मिली। महाराष्ट्र में क्लाउड
सीडिंग प्रोजेक्ट पर करीब 10 करोड़ रुपए खर्च किया जा रहा है।
क्लाउड सीडिंग: सबसे पहले कब और कहां
साल 1946 में अमेरिकी वैज्ञानिक विन्सेंट शेफर ने डीप फ्रीजर के जरिए
इस टेक्नोलॉजी को इन्वेंट किया था। 1990 तक अमेरिका में इस टेक्नोलॉजी को
खूब यूज किया गया। दावे यहां तक किए गए कि अमेरिका ने अपने यहां मानसून
सीजन को बढ़ाने के लिए क्लाउड सीडिंग की मदद ली और वो उसमें सक्सेसफुल भी
रहे। सवाल यह है कि अगर यह टेक्नोलॉजी इतनी ही कामयबा थी तो अमेरिका में कई
बार और कई राज्यों में सूखे के हालात पैदा क्यों हुए? विन्सेंट शेफर ने
खुद कभी यह दावा नहीं किया कि यह टेक्नोलॉजी 100 फीसदी सक्सेसफुल है लेकिन
यह भी सही है कि अमेरिका ने इसका कई बार फायदा उठाया।
क्लाउड सीडिंग कितनी ऊंचाई पर
Silvar Iodide को बादलों तक पहुंचाने के लिए एयरक्राफ्ट, मिनी
ब्लास्टिंग रॉकेट्स (Explosive Rockets) और बैलून्स का यूज किया जाता है।
आमतौर पर उन बादलों की क्लाउड सीडिंग की जाती है जो जमीन से एक या दो
किलोमीटर की ऊंचाई पर होते हैं। इन बादलों को निम्बस क्लाउड कहा जाता है और
इनका कलर कुछ ब्राउनिश होता है।
सबसे ज्यादा यूज करते हैं चीन और इजराइल
साल 2008 में बीजिंग ओलंपिक के पहले चीन ने क्लाउड सीडिंग तकनीक का यूज करके इस क्षेत्र में पहले ही बारिश करा ली ताकि बारिश की वजह से खेलों का मजा खराब न हो। जानकार मानते हैं कि बीजिंग में ड्रिंकिंग वॉटर की प्रॉब्लम सॉल्व करने के लिए भी चीन ने इसी टेक्नोलॉजी का यूज किया है। अगले पांच साल में चीन इस टेक्नोलॉजी का यूज 10 फीसदी बढ़ाने पर भी काम कर रहा है। इजराइल देश के कुछ खास हिस्सों में इस टेक्नोलॉजी का यूज ज्यादा करता है। रूस, साउथ अफ्रीका और सऊदी अरब भी इसका इस्तेमाल करते रहे हैं।
उठते रहे हैं सवाल
क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। एक साइंटिस्ट तारा प्रभाकरण का कहना है कि यह अच्छा ऑप्शन साबित हो सकता है लेकिन इस पर अभी और रिसर्च किए जाने की जरूरत है। इसके लिए जो केमिकल्स यूज किए जाते हैं वह एन्वॉयरमेंट के लिए खतरनाक साबित भी हो सकते हैं। प्रभाकरण का कहना है कि इंसान की वजह से ही वेदर चेंज हुआ है और अगर हम क्लाउड सीडिंग का ज्यादा यूज किया गया तो हो सकता है कि इसका नेचर पर रिवर्स इफेक्ट हो। प्रभाकरण का ये भी कहना है कि यह टेक्नोलॉजी काफी महंगी है और हमारे देश में इसका ज्यादा यूज नहीं किया जा सकता।
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