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03 मई 2013

मजहब तुम्हारे आँगन के


मजहब
तुम्हारे आँगन के
गुलमोहर की शरारती डाल
मेरी छत तक पहुँचकर
इठलाया करती थी साधिकार
जाड़े की धूप में
उसकी चटख हरी पत्तियों को देखकर
मेरा मन भी हो जाता था हरा
हम दोनों के बीच था
अनाम मह-मह करता रिश्ता
नहीं थी भाषा और मजहब की दीवार
आज तुमने निर्ममता से
खींच ली है वह डाल
जो अब धूल-धूसरित
छिन्न-भिन्न पड़ी है
तुम्हारे आँगन में
खो चुका है उसका हरापन
पर तुम खुश हो
कि मजहब को कैद कर लिया है
अपनी चारदीवारी में |

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