चलो छोड़ो.. शाम यूँ हीं शरबत-से समुंदर पर शक्कर-से सूरज-सी सरकती हुई बुझ जाएगी..
तुम्हें क्या! तुम तो रात की चटाई पे राई-से तारों को बिछाकर चुनने लगोगे कालिखों के ढेले,
गर कभी चाँद हाथ आया भी तो कहकर उजला कंकड़ फेंक दोगे उसे उफ़क की नालियों में...
सुबह होते-होते तारे समा चुके होंगे कोल्हू में.. सुबह होते-होते तुम बन चुके होगे एक कोल्हू...
खैर छोड़ो, तुम्हें क्या...
तुम्हें क्या! तुम तो रात की चटाई पे राई-से तारों को बिछाकर चुनने लगोगे कालिखों के ढेले,
गर कभी चाँद हाथ आया भी तो कहकर उजला कंकड़ फेंक दोगे उसे उफ़क की नालियों में...
सुबह होते-होते तारे समा चुके होंगे कोल्हू में.. सुबह होते-होते तुम बन चुके होगे एक कोल्हू...
खैर छोड़ो, तुम्हें क्या...
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