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03 मई 2013

चंद रुपयों में बिक जाती है अब ज़िन्दगी यहाँ

चंद रुपयों में बिक जाती है अब ज़िन्दगी यहाँ
कभी मुआवज़ों के नाम पर,
कभी सियासतों के दाम पर,
कभी इसे बेचकर भी, पेट की आग बुझ पाती है कहाँ
चंद रुपयों में बिक जाती है अब ज़िन्दगी यहाँ ....!!

आये दिन गिरती इमारतों में दबकर,
बड़ी आसन मौत नसीब होती हैं इसे,
गलती कभी ठेकेदार की, तो कभी सरकार की कहकर,
असल कारणों की किसको पड़ी है यहाँ,
चंद रुपयों में बिक जाती है अब ज़िन्दगी यहाँ ....!!

दिख रहे थे कुछ हाथ, अखबारी सुर्ख़ियों में कहीं
मलबे में दबकर, अपनी अस्थियों की जर्जरता कहते थे,
दर्द, उनकी कराह, चीखें भी तो नहीं छपती कहीं,
इसलिए उनका दर्द हमें महसूस हो पाता है कहाँ,
चंद रुपयों में बिक जाती है अब ज़िन्दगी यहाँ ....!!

कीमत वसूलने वालों से कोई पूछे,
मेरे बेटे, मेरी माँ, मेरी बीवी, मेरी बहिन की ज़िन्दगी का मोल,
मगर जो अपने-तेरे की जेबें भरने में ज़िन्दगी भुला बैठे
उन्हें इस "मेरे" का मतलब भी पता होगा कहाँ,
चंद रुपयों में बिक जाती है अब ज़िन्दगी यहाँ

------------------------------{अंकिता जैन}

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