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30 अप्रैल 2013

“प्रेम” का लब्ज़ ,सदियों से सुनते आये;

“प्रेम” का
लब्ज़ ,सदियों से सुनते आये;
हर एक ने समझ लिया,
पर कोई नया अर्थ;
या नया प्रति-शब्द ;
कंहा किसी ने कोई बताया !

“प्रेम ” जो,
वक़्त दर वक़्त चला,
हवा बदली,अन्दाज़ बदला;
एक सी साँसों की गति,
जताने की वही विधी,होंठों पर चली,
कंहा किसी ने कोई बदलाव दिखाया!!

“प्रेम” में,
यह ही साबित हुआ,
घटिया/बढ़िया बहाने भी,
कितने मनमोहक लगे,
प्रेमातुर ही जाने;
कंहा किसी ने कोई ऐतराज़ किया!!!

“प्रेम” के,
शब्द या,
ह़र अन्दाज़;
नई लिपि, नई भाषा,
क्या नया महसूस हो पाया ?
कंहा किसी ने कोई बदलाव किया!!!!

“प्रेम” की,
कविता-पुरानी हो;
या नई या हो जैसी भी,
लगे प्रमिका सिमट आई पास।
रहता है केवल प्रेम”का एहसास,
कंहा कोई बदल पाया कोई परिभाष.

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