आपका-अख्तर खान

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18 अप्रैल 2013

कभी कभी - खुद पे दया आती है

कभी कभी - खुद पे दया आती है
और मैं निरीह सा हो जाता हूँ .

सोचता हूँ तो - कहीं खो जाता हूँ .
कभी अपना - और ना जाने
किस किस का हो जाता हूँ .
जो मेरे नहीं हैं - मैं हाथ जोड़के
उनसे क्षमा चाहता हूँ .

बहक गया हूँ - अलसुबह
माफ़ कर देना मुझे - यारो
क्या कह रहा था - ना जाने
क्या-क्या कह जाता हूँ - इस लिए
अक्सर अकेला सा रह जाता हूँ .

छोड़ भी - गंभीर मत हो ज्यादा
जाने दे - सोचने से क्या फायदा
खुमारी रात की -उतरी नहीं
शायद मैं कह गया कुछ ज्यादा .

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