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18 अप्रैल 2013

मैं गर रुठ जाऊँ तो क्या या खुश हुआ-

मैं गर रुठ जाऊँ तो क्या या खुश हुआ-
मुस्करता चला जाऊँ भी तो क्या...
मैं अँधेरा हो गुजर जाऊँ या
रोशनी बन बिखर जाऊँ भी तो क्या..
कई बार सोचा इनके बीच
आधा आधा बँट जाऊँ...
मगर फिर वहीं ख्याल
मैं जो दो टुकड़ों मे बँट भी जाऊँ तो क्या...

तुम्हारी और तुम्हारे इस जहाँ की
हर उम्मीदें हैं उस अजूबे जहां से
जहाँ न रुठता है कोई
जहाँ न मुस्कराता है कोई
न सिमटता है अँधेरा बन
न रोशनी बन बिखरता है कोई..
बँट पाना तो दूर, खुद का इकलौता अस्तित्व भी
नहीं संभाल कर रख पाता है कोई...
यूँ ही बेवजह...बिना किसी स्वार्थ के...

नया जमाना है, नये लोग हैं..
नये ये तौर तरीके जिन्दगी के...

-यूँ इस घुटन भरे माहौल में भीड़ के बीच,
अकेल्रेपन का अहसास भेद जाता है मुझे!!

जो तुम पास होती तो कहती
“फिर वही दीवानापन!! संभालो अपने आप को-
जरुरत से ज्यादा सेन्टी(भावुक) हुए जाते हो तुम आजकल!!”

-समीर लाल ’समीर’

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