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01 फ़रवरी 2013

रेप से मौत या कोमा में जाने पर भी होगी फांसी

नई दिल्ली. दुष्कर्म से संबंधित कानून में बदलाव के लिए केंद्र सरकार ने अध्यादेश को मंजूरी दे दी है। लेकिन सरकार ने वही किया है जो कहती आई थी। नए कानून में दुष्कर्म के जघन्यतम मामलों में ही फांसी की व्यवस्था की गई है। यानी पीडि़त की मौत होने पर। कई संगठन दुष्कर्म के मामले भी मौत की सजा की मांग कर रहे थे। हालांकि सरकार ने यौन उत्पीडऩ की परिभाषा का दायरा जरूर बढ़ाया है।
 
अध्यादेश शुक्रवार को ही राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया। शनिवार को उनके हस्ताक्षर की उम्मीद है। इसके बाद कानून लागू हो जाएगा। जस्टिस वर्मा कमेटी ने महिलाओं से संबंधित अपराधों पर अंकुश के लिए कानून में बदलाव की सिफारिश की थी। 
 
वर्मा कमेटी ने 29 दिन में रिपोर्ट तैयार कर 23 जनवरी को सरकार को सौंपी थी। केंद्र ने इसी आधार पर अध्यादेश लाने का फैसला किया है। मौजूदा कानून में दुष्कर्म के मामले में अधिकतम 7 साल की सजा की व्यवस्था है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के घर पर हुई बैठक में वर्मा कमेटी के बाकी सुझावों पर कोई विचार नहीं किया गया। खास तौर से सुरक्षा बलों से जुड़े सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) की समीक्षा को लेकर। 
 
ऐसे हुआ फैसला
 
महज 24 घंटे के अंदर तेजी से घटे घटनाक्रम में अध्यादेश लाने का फैसला हुआ। सोनिया गांधी ने शुक्रवार सुबह प्रधानमंत्री से टेलीफोन पर बात की। तभी कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक शाम साढ़े पांच बजे तय हुई। दोपहर तीन बजे तक केंद्रीय मंत्रियों को भनक तक नहीं थी कि सरकार अध्यादेश लाने जा रही है। 
 
इसके बाद मंत्रियों को सूचित किया गया कि शाम साढ़े छह बजे प्रधानमंत्री निवास पर कैबिनेट बैठक है। कोर ग्रुप की बैठक में गृहमंत्री, वित्तमंत्री, और रक्षामंत्री के साथ सोनिया गांधी ने अध्यादेश का अध्ययन किया और रजामंदी दे दी। सोनिया ने मनमोहन से कहा, ‘आप अध्यादेश लाइए। इससे संसद की स्थाई समिति की सेंक्टिटी पर कोई सवाल नहीं होगा। हमें देश को बताना चाहिए कि सरकार सख्त कानून के लिए कितनी प्रतिबद्ध है।’ कैबिनेट बैठक लगभग डेढ़ घंटे चली। प्रधानमंत्री ने अध्यादेश पर मंत्रियों से व्यक्तिगत राय ली। गृहमंत्री और कानून मंत्री ने मंत्रियों को सरकार की योजना विस्तार से बताई। पेट्रोलिम, विदेश और महिला एवं बाल विकास मंत्री ने छेड़छाड़, एसिड फेंकने और ब्लेड मारने के लिए भी ज्यादा सजा की मांग की। इसे अध्यादेश में शामिल करने का प्रधानमंत्री ने निर्देश दिया।
 
आगे क्या 
 
सरकार को 6 माह में अध्यादेश पर संसद की मंजूरी लेनी होगी। 
 
इससे पहले विपक्ष और यूपीए के घटक दलों में सहमति बनानी होगी। 
 
अध्यादेश लाने का मतलब 
 
संसद सत्र शुरू होने के 20 दिन पहले अध्यादेश का फैसला। ताकि सरकार की संजीदगी जाहिर हो। 
 
वर्मा कमेटी की रिपोर्ट मिलने के 9 दिन के भीतर सिफारिश मानकर सरकार ने मुस्तैदी दिखाई। 
 
ताकि बजट सत्र के दौरान विपक्ष को सरकार को घेरने का मौका नहीं मिले। 
 
हत्या की स्थिति में फांसी की सजा अब भी है 
 
हत्या के मामले में पहले से मौजूद फांसी की सजा के प्रावधान को सरकार ने दुष्कर्म से जोड़कर अध्यादेश बना दिया है। राष्ट्रपति को भेजे गए इस अध्यादेश में कहा गया कि दुष्कर्म के आरोपी को ये सजा तभी दी जाए, जब दुष्कर्म पीडि़त की मौत हो गई हो। उस पर भी जब केस ‘रेअरेस्ट ऑफ रेअर’ नजर आए। हालांकि यह व्यवस्था अब भी है। 22 साल पुराने ऐसे ही एक मामले के अपराधी धनंजय चटर्जी को 2004 में फांसी दी जा चुकी है। 
 
यौन अपराध का दायरा बढ़ा 
 
नए कानून में महिलाओं के कपड़े उतारना, गलत भाव से देखना, पीछा करना और मानव तस्करी जैसे अपराधों को भी यौन अपराध की श्रेणी में लाया गया है। 
 
फांसी नहीं लोगों की सोच बदलें : चर्च 
रेप मामले में फांसी की सजा का ईसाई समाज ने विरोध किया है। कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया की इकाई ‘कैरिटास इंडिया’ का कहना है कि ऐसे मामलों में फांसी की सजा से समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा। महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों को रोकने के लिए लोगों की सोच को बदलना होगा। शुक्रवार को कैरिटास इंडिया के कार्यकारी निदेशक फादर फ्रेडरिक डिसूजा ने पत्रकारों से बताचीत में कहा कि बलात्कार पर फांसी की सजा कोई ठोस उपाय नहीं है। फांसी देने से आरोपी का खात्मा हो सकता है अपराध का नहीं। लोगों की सोच बदलने की शुरुआत घर और स्कूल से होनी चाहिए। 
 
बार-बार अपराध करने वाले नाबालिग बढ़े 
राजधानी में बार-बार अपराध करने वाले नाबालिगों की संख्या में चिंताजनक स्तर तक इजाफा हो रहा है। फिरोजशाह कोटला स्थित बाल सुधार गृह ‘प्रयास’ में २०१२ में कुल ३७६ नाबालिग पहुंचे। इनमें ३३ ऐसे थे जो बार-बार अपराध कर रहे थे जबकि २०११ में इस सुधार गृह में आए २७१ नाबालिगों में से सिर्फ ९ बार-बार अपराध करने वाले थे। राजधानी समेत पूरे देश में दर्ज होने वाले कुल अपराध के औसतन डेढ़ प्रतिशत मामलों में नाबालिग शामिल होते हैं। नाबालिग हर तरह के अपराध कर रहे हैं। अपराध के ये आंकड़े वास्तविक संख्या से कम ही हैं, क्योंकि नाबालिगों के सभी अपराध दर्ज नहीं किए जाते हैं। 
 
प्रयास के महासचिव पूर्व आईपीएस अधिकारी आमोद कंठ का मानना है कि १५ से १८ साल के ऐसे लड़कों को सुधारा जा सकता है। उनकी सही काउंसलिंग, देखभाल और पुनर्वास की जरूरत है। उनकी पढ़ाई और व्यवसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। इस दिशा में प्रयास ने ‘युवा कनेक्ट’ कार्यक्रम शुरू किया है। इसके तहत सुधार गृह में आए १५ से १८ साल के ९० लड़कों को शामिल किया गया है। इनमें २० प्रतिशत हत्या, लूट या रेप जैसे जघन्य अपराध में शामिल रहे हैं। 
 
इस कार्यक्रम के तहत सुधार गृह से जमानत या सजा पूरी करके जाने वाले नाबालिग की देखभाल, निगरानी की जाती है। उनके परिवारवालों की भी काउंसलिंग की जाती है। इसका नतीजा है कि इन ९० में से कोई भी दोबारा अपराध में शामिल नहीं हुआ। ११वीं कक्षा में पढऩे वाला एक लड़का बहन से छेड़छाड़ करने वाले की हत्या के आरोप में सुधार गृह में आया था। सुधार गृह में अच्छे व्यवहार के कारण पिछले साल उसे जमानत पर छोड़ दिया गया। उसे समझाया गया और उसका १२वीं कक्षा में दाखिला करा कर उसका पुनर्वास किया गया। 
 
दिल्ली पुलिस की सुस्ती से अपराधियों के हौसले बुलंद 
 
चलती बस में गैंगरेप की संगीन वारदात ने पुलिस की भूमिका खासकर गश्त करने के दावे पर सवालिया निशान लगा दिया है। इस मामले में पुलिस की क्या-क्या कमियां रहीं। अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस को क्या-क्या कदम उठाने चाहिए। इस बारे में दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्तों से बातचीत से राजधानी की पुलिस व्यवस्था की कई खामियां और दिक्कतें उजागर हुईं। 
 
पुलिस गश्त ठीक हो: आईबी के पूर्व निदेशक एवं पूर्व पुलिस आयुक्त अरुण भगत का कहना है कि इस तरह क ा अपराध तभी रुक सकता है जब कि पुलिस की गश्त ठीक से हो। इस मामले में यह बात सामने आई है कि वह बस एक ही रास्ते से 3-4 दफा गुजरी थी। ऐसे में सवाल उठता है कि उस रास्ते पर तैनात पीसीआर के पुलिस वालों ने उस बस को देखा तो रोका क्यों नहीं। चार्टर्ड बस सब जगह घूम रही है। इनकी चेकिंग की व्यवस्था नहीं है। ट्रांसपोर्ट विभाग और पुलिस में ज्यादा कोआर्डिनेशन होना चाहिए। 
 
पुलिस का भय नहीं रहा: भगत का यह भी मानना है कि पुलिस और कानून का आजकल भय नहीं रहा। इसकी एक वजह यह भी है कि पुलिस पर अपराधी को हथकड़ी तक तो लगाने पर अंकुश लगा दिया गया है। पुलिस वाले को अपराधी के हाथ में हाथ डाल कर कोर्ट या अन्य स्थानों पर लाना ले जाना पड़ता है। यह देख कर आम आदमी को लगता है कि पुलिस तो अपराधी से मिली हुई है। कानून और पुलिस का भय लोगों से हटा गया है। पुलिस गश्त की कमी है गश्त सही हो तो इलाके में छोटे-मोटे अपराध करने वाले के बारे में जानकारी पुलिस को मिलती है। उसी समय उसके खिलाफ कार्रवाई हो जाए तो बड़ा अपराध रोका जा सकता है। 
 
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम कमजोर: पूर्व राज्यपाल और दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त वेद मारवाह का कहना है कि यह मामला दिखाता है कि अपराधियों के हौसले कितने बुलंद हो गए है। कानूनी व्यवस्था में बदलाव की बहुत जरूरत है। गुंडों में जो डर चला गया है वह हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को कमजोर बताता है। पहले तो गुंडों को लगता है कि वे पकड़े नहीं जाएंगे, अगर पकड़े भी गए तो कोर्ट में छूट जाएंगे। मुकदमा सालों-साल चलता रहता है। ये सारी प्रक्रिया चरमरा गई है। पुलिस का राजनीतिकरण हो गया है। पुलिस का मुख्य कार्य आम नागरिकों की सुरक्षा पर ध्यान देना है,लेकिन पुलिस का ध्यान राजनेताओं की सेवा पर रहता है। ये सब चीजें जब तक नहीं बदलेंगी, कोई सुधार नहीं होने वाला है। उन्होंने कहा कि कानून तो है उनको सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। आप कितने भी कानून बना लें अगर उनको लागू नहीं कर पाए तो उनका कोई फायदा नही। 
 
गुंडों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ेगी: पुलिस हर जगह तो हो नहीं सकती, लेकिन ये भी सच्चाई है कि पुलिस को गुंडों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ेगी। किसी भी इलाके में गुंडों की पहचान करना बहुत कठिन काम नहीं है। अगर समय रहते गुंडों के खिलाफ कार्रवाई हो तो उनके हौंसले इतने बुलंद नहीं हो पाएंगे।

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (2-2-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. नाबालिगों के सजा में छुट के चलते बाल अपराध में बेतहासा वृद्धि होने की आशंका है।

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  3. नाबालिगों को भी अपराध के अनुसार दंड निश्चित किये जाने चाहिए मेरे विचार से तो नाबालिग सिर्फ 15 या 16 साल तक ही होने चाहिए

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