आपका-अख्तर खान

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03 मार्च 2012

कोटा में मुसलमानों में अराजकता के लियें प्रशिक्षित मुस्लिम माहोल खराब कर रहे है


दोस्तों देश की तरक्की और खुश हाली का फार्मूला देख रहे हो ना ..आपके और हमारे तो समझ में आ गया लेकिन कुछ गद्दार है जो आज भी इस हकीकत को समझ नहीं पा रहे है कुछ हैं जो विदेशी ताकतों से मदद लेकर देश के हालात बिगाड़ने और ह म को में और तू बना कर तू तू मेमे करवाना चाह रहे है ......... दोस्तों गद्दारों और अराजकता फेलाने वालों का कोई धर्म कोई जाती नहीं होती और इन दिनों एक योजना के तहत देश में मुसलमानों से मुसलमानों को लडाने और उन्हें कमजोर करने के मंसूबे तय्यार किये गये है ..कोटा में यह जहरीला पोधा .कुछ लालची और कमजोर ईमान वालों को शामिल कर भाजपा के आर एस एस ने लगाया था जो अब असर दिखाने लगा है .... दोस्तों राजस्थान के अजमेर में पिछले दिनों एक बम विस्फोट की घटना में आर एस एस के जनाब इन्द्रेश कुमार जी को अभियुक्तों की सूचि में डाला गया था लेकिन कोंग्रेस सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किये बगेर उन्हें मुक्त करते हुए अदालत में चार्ज शीट पेश कर दी ..जी हाँ ये वही इन्द्रेश जी है जिनके एक इशारे पर कोटा के एक मुफ्ती और कुछ मोलाना दो चार कथित पढ़े लिखे लोगों के साथ मिलकर कुछ भी कर गुजरने को तय्यार है ..मुफ्तियों और मोलानाओं को तो काफी मदद मिली .....तो जनाब हम बात कर रहे थे कोटा में आम मुसलमानों के बीच मुसलमानों के जरिये एक खतरनाक फसाद का माहोल बनाने की कोशिश करने की .और यह जहर यहाँ करीब दस वर्षों से फेलाने की कोशिशें थी ..एक कथित मुफ्ती जिनकी डिग्री आज तक किसी ने नहीं देखी जिन्हें तकवे पर चलते हुए आज तक किसी ने नहीं देखा वोह इन्द्रेश जी और इनकी माई हिदुस्तान ..राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच में लगातार सक्रिय रहे है इनसे जुड़े लोग भी इनके साथ सक्रिय हो गये ..इन दिनों कोटा में इन लोगों द्वारा कोटा के शहर काजी को निचा दिखाने के लियें योजनाबद्ध तरीके से अभियान चलाने के लियें कहा गया है ताकि कोटा के मुसलमान वर्ग विभाजित हो जाए वोह तो शुक्र है खुदा का के यहाँ शहर काजी समझदार है और वोह हमेशा अपने समर्थकों को सब्र से काम लेने की सलाह दे रहे है .दूसरी तरफ कुछ लोग है जिन्हें ख़ास प्रिशिक्ष्ण दिया गया है के जब भी कोटा में किसी भी मुस्लिम धर्म का कोई भी जलसा हो वहां गिरोह बनाकर उसका विरोध किया जाये ..एक दुसरे से नफरत फेलाने की बात कहकर वर्ग विभाजित करने की बात करी जाए ...दोस्तों नफरत फेलाने का यह प्रशिक्ष्ण यहीं खत्म नहीं हो रहा है एक गिरोह जो कोटा में कोई भी मुस्लिम समाज का काम हो वहां किसी भी लीडर को बुलाया जाए तो कुछ लोग वहां जाकर किसी भी बहाने से हंगामे का माहोल खड़ा कर रहे है ..पिछले दिनों इस मामले में कोटा के आम मुसलमानों को समझाया भी गया था के अगर को भी अपनी बात कहना चाहता है तो वोह आगन्तुक नेता से सर्किट हाउस में जाकर कहे लेकिन किसी मुस्लिम तंजीम द्वारा बुलाये गये किसी भी कार्यक्रम को योजनाबद्ध तरीके से बिगाड़ने की साज़िश में शामिल नहीं हों लेकिन एक खास गिरोह मानने को तय्यार नहीं है ..मुस्लिमों के कल्याणकारी कार्यों को भी रुकवाने के लियें वोह किसी न किसी तरह फर्जी आरोप लगाकर काम रुकवाने की जुगत में लगे हुए है ,,,तो दोस्तों कोटा में अब मुसलमानों को दुश्मनों की जरूरत नहीं है यहाँ तो एक वर्ग आर एस एस समर्थक ऐसा तय्यार हो गया है जो आपस में ही दुश्मनी का माहोल बना रहा है ..खुदा खेर करे अगर यह गुटबाजी और नफरत की राजनीति कहती रही तो कोटा में अगर माहोल ग्राम हुआ तो इससे कोटा की सुक्ख शांति भंग होगी और इससे देश का ही नुकसान है यह बात कोटा के कथित राष्ट्रभक्त मुसलमान जो बिना किसी रोज़गार के अज्ञात स्त्रोत से मिली आय से अपना जीवन यापन कर रहे है समझने को तय्यार नहीं है के किसी भी अराजकता से किसी जाती ..किसी धर्म किसी समुदाय या किसी राजनितिक पार्टी का फायदा नुकसान नहीं है इससे तो पुरे देश पुरे राष्ट्र का नुकसान है .......अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

दुष्यंत-शकुन्तला की प्रणय-प्रसंग और भरत की क्रीडा स्थली है ये!


वैदिक ऋषि कण्व की तपोस्थली कंसुआ शिव मंदिर की प्राचीनतम और आध्यात्मिक वैभवता के साथ कई ऐसे प्रसंग जुड़े हैं, जिनकी सत्यता प्रामाणिकता इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। देश के कुछेक प्राचीनतम धार्मिक स्थलों की सूची में दर्ज कंसुआ धाम शिवालय और इसके आसपास मौजूद सैकडों साल पुरानी पुरासंपदा वह अनमोल धरोहर है, जिस पर इस शहर को गर्व होना चाहिए। दुष्यंत-शकुंतला के प्रणय प्रसंग और उससे जन्मे महाप्रतापी भरत की क्रीड़ा स्थली है यह। वे ही भरत, जिनके नाम पर हमारे देश का नामकरण हुआ। भला इससे बड़ा गौरव और क्या हो सकता है। प्रत्येक शहरवासी का दायित्व है कि वह न केवल इसे सहेजे बल्कि दुनिया को इसके बारे में बताए भी।

-डॉ. जगतनारायण (इतिहासकार)।

‘हमारे माता और पिता अगर बूढ़े हो जाएं, उनके बाल सफेद और दांत गिर जाएं तो क्या हम उनके पास जाना छोड़ देते हैं? तब क्या हम उनके अस्तित्व को नकार देते हैं? बिल्कुल नहीं, बल्कि हम उनकी ज्यादा देखभाल और फिक्र करते हैं। आश्चर्य की बात है कि मेरे नगरवासी यहां की इतिहास प्रसिद्ध महान थाती से अपरिचित हैं।

हां, हम चर्चा कर रहे हैं, कोटा स्थित पवित्र कण्वाश्रम तीर्थ की महत्ता की। जिसके नाम पर आज कंसुआ बस्ती बसी हुई है। यह सही है कि आज यह स्थान इसके आसपास गंदगी और टूटफूट से विकृत नजर आता है लेकिन इसके अंतरंग में जो प्राचीनतम भव्य गौरवशाली स्मारक है उसको जानने का कोई प्रयास नहीं करता।

आज की कंसुआ बस्ती जो एक नाले के किनारे बसी हुई है। उसका इतना चौड़ा पाट है कि यह अवश्य कभी कोई नदी रही होगी। यह नदी दक्षिण पश्चिम दिशा से आती हुई जहां पूर्वमुखी होती है, वहीं पर एक प्राचीन मंदिर है। हमारे धर्मग्रंथों में यह कहा जाता है कि जहां नदी पूर्वमुखी होती है वहां बनाए गए मंदिर को तीर्थ माना जाता है।

इसलिए इस मंदिर को पुरातनकाल से कंसुआ तीर्थ कहा जाता है। यहां जो प्राचीन शिवमंदिर खड़ा हुआ है इसका निर्माण विक्रमी संवत 795 यानि 738 ईस्वी में हुआ था। इस हिसाब से यह मंदिर 1274 साल पुराना है। कभी किसी आक्रांता द्वारा या हमारी लापरवाही के कारण यह मंदिर भग्न हो गया था और इसका शिखर टूट गया था।

बाद में जब इसका पुनरुद्धार किया गया तो छावना (लेंटल) स्तर तक यह मूल मंदिर था और इसका शिखर बाद में बनाया गया। इस मंदिर के दाहिनी दीवार पर एक शिलालेख लगा हुआ है, जिसमें इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख हुआ है। हिंदी के महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटक ‘चंद्रगुप्त’ की भूमिका में इस शिलालेख का उल्लेख किया है। इस शिलालेख को कुटिल लिपि में लिखे गए देश के श्रेष्ठतम शिलालेखों में से शीर्ष माना जाता है।

शिलालेख में इस स्थान को प्राचीनतम धार्मिक तीर्थस्थल उल्लेखित करने के साथ ही लिखा हुआ है कि यह प्राचीनतम कण्व आश्रम है। इसलिए ही इस स्थान की महत्ता को समझकर चित्तौड़ के राजा धवल मौर्य के सामंत शिवगण ने विक्रमी संवत 795 में इस मंदिर का निर्माण कराया था। शिवगण ब्राrाण था और उसने शिवमंदिर का निर्माण कराके वैदिक ऋषि महर्षि कण्व के आश्रम को हमेशा के लिए अमर बना दिया। हमारी कोटा नगरी धन्य है, जहां कि वैदिक कालीन महर्षि कण्व ने अपना आश्रम बनाया था। मंदिर का समय समय पर कोटा के हाड़ा वंशीय शासकों ने भी जीर्णोद्धार कराया।

मूर्तिकला की बेजोड़ मिसाल है कंसुआधाम

कंसुआधाम में छावना तक जो मूल मंदिर है, वह आठवीं शताब्दी की मंदिर व मूर्तिकला की बेजोड़ मिसाल है। हमारे स्थापत्य और मंदिर निर्माण में जिन पुरातन शास्त्रसम्मत विधान का उल्लेख है, उसका इस मंदिर निर्माण में पूर्णतया पालन हुआ है। इसकी पत्थरों की पॉलिश मूर्तियों की सुघड़ता भव्य होने के साथ ही बड़ी ही भव्य आकर्षक महसूस होती है।

मुख्य मंदिर के सामने जो पंचमुखी शिवलिंग है वह मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है। यूं तो पूरा परिसर शिवलिंग से भरा हुआ है। लगता है हर काल में प्रमुख श्रद्धालुओं ने यहां एक-एक शिवलिंग की स्थापना की होगी। नाले के किनारे चबूतरे पर सहस्त्र शिवलिंग बना हुआ है, जिसमें मुख्य शिवलिंग पर 999 छोटे शिवलिंग उत्कीर्ण हैं।


भरत की जन्मस्थली शोध का विषय

पहले जब हमें ज्ञात था कि देश में केवल यही कोटा का कंसुआ धाम महर्षि कण्व का आश्रम था। तब हम बड़े दावे से कहते थे कि शकुंतला इसी आश्रम में रहती थी और उनकी कोख से भारत के प्रतापी नरेश भरत का जन्म इसी जगह हुआ था। लेकिन अब देश के कुछेक स्थानों से महर्षि कण्व का आश्रम होने के समाचार आने लगे तो हमारे लिए यह शोध का विषय हो गया कि भरत का जन्म किस कण्व आश्रम में हुआ था।

शकुंतला का जन्म अजमेर के पुष्कर में महर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका के संसर्ग से हुआ था। पुष्कर से वापस लौटते समय मेनका अपनी नवजात पुत्री शकुंतला को पालन पोषण के लिए कण्व ऋषि के आश्रम के समीप छोड़ गई थी। कोटा पुष्कर के नजदीक होने से हमारा एक ध्यान यह भी जाता है कि शायद इसी स्थान पर शकुंतला रही हो।


पवित्र स्नान का पुण्य और गोठ का मजा था यहां

कंसुआधाम का स्मारक (शिवालय) तो सुरक्षित है लेकिन बाहर का ऐतिहासिक परिसर गंदगी से अटा है। पुराने समय में यह परिसर कोटा क्षेत्र के लोगों के लिए पवित्र स्नान और गोठ का स्थान था। परिसर के बीच में बहुत ही सुंदर चौकोर कुंड बना हुआ है, जिसमें किसी समय स्वच्छ निर्मल जल भरा रहता था। एक झरने के रूप में यह पानी गिरता था।

यह झरना इस नदी के ऊपर बनाए गए बंधे से गिरता था। वहां विपुल जलराशि रहती थी जिससे नाला निरंतर भरता रहता था। बाद में इस तीर्थ स्थली के आसपास अनेक कारखाने लगने और बस्ती की गंदगी से इस जलराशि के जल संग्रहण स्थल को पूरी तरह पाट दिया गया। बरसात के पानी को भी लोग गंदगी डालकर दूषित कर देते हैं जो 12 माह इस जगह भरा रहता है।

प्राचीन नदी व नाले का उपयोग खुले शौचालय के रूप में किया जा रहा है। विडंबना है कि प्रशासन इस गौरवमयी तीर्थस्थली के रखरखाव व सौंदर्यीकरण का जिम्मा नहीं निभाता। कुंड के आसपास जो गोठ करने, भोजन बनाने के कक्ष थे वे भी भग्न अवस्था में हैं और उनकी मरम्मत पर कोई ध्यान नहीं देता।

कंसुआ मार्ग और भरत सर्किल के बोर्ड लगे

कोटात्न डीसीएम रोड को कंसुआधाम रोड व चौराहे का भरत के नाम पर नामकरण करने के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं। मंदिर मठ बचाओ समिति के सदस्यों ने इसकी मुहिम छेड़ दी है। शनिवार को एरोड्रम सर्किल व रेलवे पुलिया के पास कंसुआधाम रोड के बोर्ड लगाए गए। इसी प्रकार चौराहे पर भरत सर्किल का बोर्ड लगाया गया। क्षेत्रवासियों ने तालियों के साथ इसका स्वागत किया। उन्होंने कहा कि पहली बार कंसुआधाम को अंधियारे से बाहर निकालने का कार्य हो रहा है। इसमें कंसुआधाम का पूरा सहयोग है।


समिति के सदस्य क्रांति तिवारी के नेतृत्व में शनिवार को दोपहर बाद कंसुआ क्षेत्र में पहुंचे। उन्होंने वहां चौराहे पर पहुंचकर भरत चौराहा के नाम का बोर्ड वहां लगाया। इस दौरान आसपास के नागरिक बड़ी संख्या में मौजूद थे। उन्होंने कहा कि अब इस चौराहे को भरत चौराहे के नाम से ही जाना जाएगा। इसके बाद सदस्यों ने रेलवे पुलिया के पास तथा एरोड्रम सर्किल के पास कंसुआधाम रोड को इंगित करने वाले बोर्ड लगाए। अब डीसीएम रोड का नाम कंसुआधाम रोड के नाम से ही जाना जाएगा।

धारीवाल के पास पहुंचे

समिति के सदस्यों ने शाम को नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल को भी ज्ञापन दिया। उन्होंने धारीवाल को बताया कि क्षेत्रवासियों के साथ ही आमजन की भी इच्छा है कि डीसीएम रोड का नाम कंसुआ रोड व चौराहे का नाम भरत चौराहा रखा जाए। उन्होंने इस बारे में विस्तार से जानकारी भी ली। धारीवाल ने इस संबंध में यूआईटी अधिकारियों से चर्चा करने का आश्वासन दिया।

इस कार्य में सहयोग करने वालों में जुगल शर्मा, राहुल मिश्रा, दिनेश जोशी धर्मेंद्र शर्मा, दिलीप गुर्जर, मनीष एडवोकेट, रिंकू गुर्जर, बद्री मेघवाल, मुकेश भटनागर आदि मौजूद थे। उधर, कंसुआधाम पर गुप्त शिवलिंग वाले कमरे की सफाई का कार्य जारी है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग 10 मार्च तक इस कार्य को पूरा करने की तैयारी में जुटा हुआ है, ताकि 11 व 12 को यहां लोगों को दर्शन करने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो।

अब सांप भी सरकारी संपत्ति, गले में लटकाया तो जुर्माना और जेल

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चंडीगढ़. चंडीगढ़ प्रशासन ने सांप और अजगर को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया है। गले में सांप और अजगर टांगने के लिए अब प्रशासन से लिखित में अनुमति लेनी होगी। प्रशासन की ओर से जारी एक अधिसूचना के मुताबिक सांप, अजगर को अगर गले में लटकाकर कोई घूमता पाया गया तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा। प्रशासन की ओर से इसकी सूचना देने के लिए हेल्पलाइन भी शुरू कर दी गई है।

वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट में है प्रावधान

चंडीगढ़ प्रशासन के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन संतोष कुमार ने बताया कि सांप व अजगर को अवैध तरीके से गले में टांगने और उन पर अत्याचार करने के लिए वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत 25 हजार रुपये जुर्माना और 3 साल की सजा का प्रावधान है। उन्होंने बताया कि शहर में अवैध रूप से सांप और अजगर गले में टांगकर ढोंगी बाबा घूमते फिरते हैं। हाल ही में शिवरात्रि पर एक अजगर के गले पर रस्सी बांधकर उस पर अत्याचार करने का मामला भी सामने आया था। इसके चलते प्रशासन ने यह कदम उठाया है। ध्यान रहे कि शिवरात्रि पर मोहाली और सेक्टर 39 प्रशासन के वन विभाग को इस तरह की शिकायतें मिली थीं।

शिकायतें मिली थी

शिवरात्रि के समय में एक दो शिकायतें मिली हैं। कई त्योहार इन जानवरों से जुड़े रहे हैं। यह जानवर सरकारी संपत्ति हैं। सभी मंदिरों के पुजारियों और मंदिर प्रबंधनों को लिखा गया है कि इनके साथ छेड़छाड़ न की जाए। अगर फिर भी इनके साथ छेड़छाड़ की शिकायत आती है तो संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी।

बारात का जनकपुर में आना और स्वागतादि


चौपाई :
* कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥
भावार्थ:-(दूध, शर्बत, ठंडाई, जल आदि से) भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुंदर बर्तन,॥1॥
* फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥
भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥
भावार्थ:-उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुंदर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिए भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ (रत्न), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ,॥2॥
* मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥
भावार्थ:-तथा बहुत प्रकार के सुगंधित एवं सुहावने मंगल द्रव्य और शगुन के पदार्थ राजा ने भेजे। दही, चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर-भरकर कहार चले॥3॥
* अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥
भावार्थ:-अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए॥4॥
दोहा :
* हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥
भावार्थ:-(बाराती तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥305॥
चौपाई :
* बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥
भावार्थ:-देवसुंदरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। (अगवानी में आए हुए) उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की॥1॥
* प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥
भावार्थ:-राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले॥2॥
* बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥
भावार्थ:-विलक्षण वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुंदर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकार का सुभीता था॥3॥
* जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥
भावार्थ:-सीताजी ने बारात जनकपुर में आई जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलाई। हृदय में स्मरणकर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिए भेजा॥4॥
दोहा :
* सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥
भावार्थ:-सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इंद्रपुरी के भोग-विलास को लिए हुए गईं॥306॥
चौपाई :
* निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥
भावार्थ:-बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं॥1॥
* सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥2॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता न था॥2॥
* सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे, परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत संतोष उत्पन्न हुआ॥3॥
* हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥
भावार्थ:-प्रसन्न होकर उन्होंने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो॥4॥
दोहा :
* भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥
भावार्थ:-जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले॥307॥
चौपाई :
* मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥
भावार्थ:-पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत्‌ प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी॥1॥
* पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥2॥
भावार्थ:-फिर दोनों भाइयों को दण्डवत्‌ प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होंने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥2॥
* पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ ने प्रेम के आनंद में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वंदना की और मनभाए आशीर्वाद पाए॥3॥
* भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥
भावार्थ:-भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले॥4॥
दोहा :
* पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥
भावार्थ:-तदन्तर परम कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मंत्रियों और मित्रों सभी से यथा योग्य मिले॥308॥
* रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई (राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शांत हो गई)। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं, मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किए हुए हों॥1॥
चौपाई :
* सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥
भावार्थ:-पुत्रों सहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। (आकाश में) देवता फूलों की वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही हैं॥2॥
* सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥
भावार्थ:-अगवानी में आए हुए शतानंदजी, अन्य ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बारात सहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥3॥
* प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥
भावार्थ:-बारात लग्न के दिन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर में अधिक आनंद छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानंद प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जाएँ (बड़े हो जाएँ)॥4॥
* रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुंदरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषों के समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे हैं॥309॥
चौपाई :
* जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥
भावार्थ:-जनकजी के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री रामजी हैं। इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए॥1॥
* इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥
भावार्थ:-इनके समान जगत में न कोई हुआ, न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए,॥2॥
* जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥
भावार्थ:-और जिन्होंने जानकीजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रों का लाभ लेंगे॥3॥
* कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥
भावार्थ:-कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुंदर नेत्रों वाली! इस विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे॥4॥
दोहा :
* बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥
भावार्थ:-जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेंगे और करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर दोनों भाई सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेंगे॥310॥
चौपाई :
* बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥
भावार्थ:-तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होंगे॥1॥
* सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग हुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥
भावार्थ:-हे सखी! जैसा श्री राम-लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुंदर हैं। जो लोग उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं॥2॥
* कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥
भावार्थ:-एक ने कहा- मैंने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुंदर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥3॥
* लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है॥4॥
छन्द :
* उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥
भावार्थ:-दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुंदर मंगल गावें।
सोरठा :
* कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥
भावार्थ:-नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि हे सखी! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं, त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे॥311॥
चौपाई :
* एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमंग-उमंगकर (उत्साहपूर्वक) आनंद से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया॥1॥
* कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का निर्मल और महान यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। जनकपुर निवासी और बाराती सभी बड़े आनंदित हैं॥2॥
* मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥
भावार्थ:-मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया,॥3॥
* पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥
भावार्थ:-और उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥4॥
दोहा :
* धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
भावार्थ:-निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥
चौपाई :
* उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
भावार्थ:-तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आए॥1॥
* संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
भावार्थ:-शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुंदर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥
* लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
भावार्थ:-सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥
* भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥
भावार्थ:-(उन्होंने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥
दोहा :
* भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥
भावार्थ:-अवध नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥
चौपाई :
* सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥
भावार्थ:-देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े॥1॥
* प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥
भावार्थ:-और प्रेम से पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥
* चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥
भावार्थ:-विचित्र मंडप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भंडार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥3॥
* तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥
भावार्थ:-उन्हें देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥
दोहा :
* सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥
भावार्थ:-तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात्‌ भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥
चौपाई :
* जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥
भावार्थ:-जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी हैं, काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥
* एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नंदीश्वर को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं॥2॥
* साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥
भावार्थ:-उनके साथ (परम हर्षयुक्त) साधुओं और ब्राह्मणों की मंडली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुंदर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किए हुए हों॥3॥
* मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥
भावार्थ:-मरकतमणि और सुवर्ण के रंग की सुंदर जोड़ियों को देखकर देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई (अर्थात्‌ बहुत ही प्रीति हुई)। फिर रामचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में (अत्यन्त) हर्षित हुए और राजा की सराहना करके उन्होंने फूल बरसाए॥4॥
दोहा :
* राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥
भावार्थ:-नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र (प्रेमाश्रुओं के) जल से भर गए॥315॥
चौपाई :
* केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥1॥
भावार्थ:-रामजी का मोर के कंठ की सी कांतिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करने वाले प्रकाशमय सुंदर (पीत) रंग के वस्त्र हैं। सब मंगल रूप और सब प्रकार के सुंदर भाँति-भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाए हुए हैं॥1॥
* सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥
भावार्थ:-उनका सुंदर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमल को लजाने वाले हैं। सारी सुंदरता अलौकिक है। (माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कहीं नहीं जा सकती, मन ही मन बहुत प्रिय लगती है॥2॥
* बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥
भावार्थ:-साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों को (उनकी चाल को) दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करने वाले (मागध भाट) विरुदावली सुना रहे हैं॥3॥
* जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥
भावार्थ:-जिस घोड़े पर श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी (तेज) चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुंदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया हो॥4॥
छन्द :
* जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥
भावार्थ:-मानो श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुंदर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।
दोहा :
* प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥
भावार्थ:-प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो॥316॥
चौपाई :
* जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥1॥
भावार्थ:-जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥1॥
* हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥
भावार्थ:-भगवान विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे (रमणीयता की मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥
* सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥
भावार्थ:-देवताओं के सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुंदर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं॥3॥
* देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥
भावार्थ:-सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है॥4॥
छन्द :
* अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥
भावार्थ:-दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और 'रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मंगल द्रव्य सजाने लगीं॥
दोहा :
* सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥
भावार्थ:-अनेक प्रकार से आरती सजकर और समस्त मंगल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी की सी चाल वाली) उत्तम स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥
चौपाई :
* बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥
भावार्थ:-सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और सभी मृगलोचनी (हरिण की सी आँखों वाली) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुड़ाने वाली हैं। रंग-रंग की सुंदर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं॥1॥
* सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥
भावार्थ:-समस्त अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाए हुए वे कोयल को भी लजाती हुई (मधुर स्वर से) गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं॥2॥
* बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥
भावार्थ:-अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुंदर मंगलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ थीं,॥3॥
* कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥
भावार्थ:-वे सब कपट से सुंदर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने उन्हें पहचाना नहीं॥4॥
छन्द :
* को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥
भावार्थ:-कौन किसे जाने-पहिचाने! आनंद के वश हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनंदकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड़ आया और सुंदर अंगों में पुलकावली छा गई॥
दोहा :
* जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥
श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥
चौपाई :
* नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥
भावार्थ:-मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥
* पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने (रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया॥2॥
* दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥3॥
भावार्थ:-दशरथजी अपनी मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं॥3॥
* नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥
भावार्थ:-आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए॥4॥
छन्द :
* बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥
भावार्थ:-आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।
दोहा :
*नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥
भावार्थ:-नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥319॥
चौपाई :
* मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥
भावार्थ:-वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए॥1॥
* लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥
भावार्थ:-जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥
* जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥
भावार्थ:-(वे कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥3॥
* देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥
भावार्थ:-देवताओं की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आए॥4॥
छन्द :
* मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥
भावार्थ:-मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती॥
दोहा :
* बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥
भावार्थ:-राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥
चौपाई :
* बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके संबंध से) अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की॥1॥
* पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥
भावार्थ:-राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥
* सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥
* कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥
भावार्थ:-वे कपट से ब्राह्मणों का सुंदर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें सुंदर आसन दिए॥4॥
छन्द :
* पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥
भावार्थ:-कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है। आनंदकन्द दूलह को देखकर दोनों ओर आनंदमयी स्थिति हो रही है। सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं को पहिचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिए। प्रभु का शील-स्वभाव देखकर देवगण मन में बहुत आनंदित हुए।
दोहा :
* रामचन्द्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥321॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुंदर नेत्र रूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं, प्रेम और आनंद कम नहीं है (अर्थात बहुत है)॥321॥
चौपाई :
* समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥
भावार्थ:-समय देखकर वशिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। वशिष्ठजी ने कहा- अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइए। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले॥1॥
* रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
बिप्र बधू कुल बृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥2॥
भावार्थ:-बुद्धिमती रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों समेत बड़ी प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणों की स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुंदर मंगल गीत गाए॥2॥
* नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ देवांगनाएँ, जो सुंदर मनुष्य-स्त्रियों के वेश में हैं, सभी स्वभाव से ही सुंदरी और श्यामा (सोलह वर्ष की अवस्था वाली) हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो रही हैं॥3॥
* बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥4॥
भावार्थ:-उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। (रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ) सीताजी का श्रृंगार करके, मंडली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मंडप में लिवा चलीं॥4॥

कुरान का संदेश

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आमलकी एकादशी 4 को, करें आंवला वृक्ष का पूजन



फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं। यह एकादशी सभी पापों का नाश करने वाली है। इस दिन व्रत करने से भगवान विष्णु की कृपा बनी रहती है। इस दिन विशेष रूप से आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है। इस बार यह एकादशी 4 मार्च, रविवार को है।

आमलकी यानी आंवला को हिंदू धर्म शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। मान्यता के अनुसार विष्णुजी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। आमलकी एकादशी के दिन आंवला वृक्ष का स्पर्श करने से दुगुना व इसके फल खाने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। आंवला वृक्ष के मूल भाग में विष्णु, ऊपर ब्रह्मा, तने में रुद्र, शाखाओं में मुनिगण, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुदगण और फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं।

भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।

जहां एक साथ तीन पीढियां सुनाती हैं भगवान को 'गालियां'!

जैसलमेर/जोधपुर.उत्साह, उमंग व हर्षोल्लास का त्यौहार स्वर्णनगरी में अपने आप में अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। आज भी ऐसी कई परंपराएं है जिनका निर्वाह लंबे समय से किया जा रहा है। स्वर्णनगरी में अभी भी होली के दिनों में श्लील ख्याल गाए जाते है। जिनका शहरवासी विरोध नहीं स्वागत करते हैं।यहां तक की होली के दिनों में भगवान को भी श्लील ख्याल सुनाए जाते हैं। आमजन से लेकर पूर्व महारावल भी इनका लुत्फ उठाते है। पुष्करणा समाज की ओर से निकाली जाने वाली गेरों में गाई जाने वाली इन श्लील गालियों के चलन का ठीक से पता नहीं चल पाता लेकिन यह परंपरा कई वर्षो से निरंतर चली आ रही है। जिसका आज भी निर्वाह हो रहा है। ब्रज की तर्ज पर बनी यह गालियां स्थानीय लोक गीतों पर आधारित है।
ग्यारस से प्रारंभ होती है गेरें: पुष्करणा समाज की ओर से ग्यारस के दिन दुर्ग स्थित नगर अराध्य श्रीलक्ष्मीनाथ मंदिर से गेर प्रारंभ की जाती है। इसे गेरियों की ग्यारस कहा जाता है। इस बार गेरियों की ग्यारस 4 मार्च को है। दुर्ग से रवाना होकर गोपा चौक, जिंदानी चौक, गांधी चौक होते हुए महारावल के निवास पर पहुंचती है।

महारावल के निवास पर यहां के पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा महारावल को भी श्लील ख्याल सुनाए जाते है। महारावल के निवास से यह गेरे अपने-अपने धड़ों के अनुसार बंट जाती है। होलीका दहन से एक दिन पहले गड़सीसर स्थित बगेचियों में गोठ होती है।जिसकी रात्रि को फिर से समाज के समस्त धड़ों द्वार गेर निकाली जाती है।जो गड़सीसर गेट से प्रारंभ होकर चैनपुरा में समाप्त होती है।भगवान भी सुनते है गेरियों की:
गेरियों की श्लील ख्यालों से कोई भी अछूता नहीं रहता। आमजन से लेकर भगवान को भी सुनाए जाते है। होली के उल्लास व उमंग में भावविभोर होकर गेरिये भगवान को भी ख्याल सुनाते है। आसनी स्थित मिलाप मंदिर में ठाकुरजी को भी ख्याल सुनाए जाते है।
वयोवृद्ध मुकुनलाल जगाणी ने बताया कि हमारे जमाने में जब होली की गेर निकलती थी तब अन्य समाजों की महिलाएं एवं पुरुष गोपा चौक में एकत्र होकर इनका लुत्फ उठाते थे। प्रमुख रूप से सगे संबंधियों को गालियों से संबोधित किया जाता था। जहां पर भायप होती है वहां श्लील गालियां नहीं गाई जाती।
कई नियमों का रखा जाता है ध्यानभंवरलाल गोपा ने बताया कि ग्यारस से प्रारंभ होने वाली इन गेरों में कई चीजों का विशेष ध्यान रखा जाता है। दुर्ग की अखे प्रोल से प्रारंभ होती है तथा जिंदानी चौक तथा गांधी चौक में श्लील ख्याल नहीं गाए जाते है। साथ ही उन मौहल्लों में भी गालियां नहीं गाई जाती है जहां संबंधित धड़ों की भायप होती है। जैसे ही गेरे जिंदानी चौक पहुंचती है तो फाग के गीत प्रारंभ होते है वहीं गांधी चौक में भी गेरियों द्वारा फाग गाई जाती है।

तीन पीढ़ियां एक साथ गाती हैं गालियां

किसी के साथ भी छेड़खानी नहीं की जाती और न ही किसी व्यक्ति विशेष को सुनाए जाते हैं। गेरों में पांच साल के बच्चों से लेकर 70 साल तक के वृद्ध भी उल्लास के साथ भाग लेते हैं। इन गेरों में दादा-अपने पोते के साथ तो चाचा अपने भतीजे के साथ गालियां गाते दिखाई देते हैं।

चंग की थाप व झांझ की झनक पर गुलाल उड़ाते गेरियों का अलग ही अंदाज है। होली के त्यौहार पर श्लील ख्याल गाने की छूट होने के कारण सभी एक साथ मिलकर इसका लुत्फ उठाते हैं। बड़ों से लेकर छोटे तक गीत गाते है वह भी अदब में।

ऐसा होता है मौत का अपशकुन: बच के रहें अगर ऐसे इशारे देने लगे कौआ

सिर्फ पितरों के दिनों में ही कौओं पर ध्यान न दें रोजमर्रा में भी कौओं पर ध्यान देना चाहिए। अगर आपके साथ कुछ अशुभ होने वाला है तो कौए इशारे से बता देते हैं। कोओं को अशुभ इसलिए माना जाता है क्योंकि इनको मौत या कोई बड़ा संकट आने से पहले एहसास हो जाता है और ये संकेत दे देते हैं।



- यदि किसी व्यक्ति के ऊपर कौआ आकर बैठ जाए तो उसे धन व सम्मान की हानि होती है। यदि किसी महिला के सिर पर कौआ बैठता है तो उसके पति को मौत के समान गंभीर संकट का सामना करना पड़ता है।

- किसी के घर पर कौओं का झुण्ड आकर शौर मचाए तो मालिक पर कई संकट एक साथ आ जाते हैं।

- यदि बहुत से कौए किसी नगर या गांव में इक_े होकर शौर करें तो उस नगर या गांव पर भारी विपत्ति आती है।

- यदि उड़ता हुआ कौआ किसी के सिर पर बीट करे तो उसे रोग व संताप होता है। और यदि हड्डी का टुकड़ा गिरा दे तो उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

- यदि कौआ पंख फडफड़़ाता हुआ उग्र स्वर में बोलता है तो यह अशुभ संकेत है।

- यदि कौआ ऊपर मुंह करके पंखों को फडफड़़ाता है और कर्कश स्वर में आवाज करता है तो वह मृत्यु की सूचना देता है।

दोस्तों आप हैं कोटा की समर्पित समाजसेविका और कर्मचारी नेता बहन श्रीमती हंसा जी त्यागी ..जो कोटा में ही नहीं बलके प्रदेश के कई हिस्सों में पीड़ित और परेशान लोगों की सेवा कार्यों से गेर राजनितिक तरीके से जुड़ कर उनकी मदद कर रही है ..बहन हंसा जी अपनी प्रशासनिक क्षमता के कारण कर्मचारियों में भी महत्वपूर्ण नेत्रत्व की छवि बना चुकी है अभी हाल ही में हंसा जी के कार्यों और सेवाओं को देखते हुए इन्हें प्रदेश कर्मचारी संघ की उपाध्यक्ष बनाया गया है ..हंसा जी को इनके प्र्श्नस्नीय कार्यों के लियें बधाई और नये पद के लियें मुबारकबाद .......अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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