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28 जनवरी 2012

बसंत पंचमी: सही मायने में नूतनता और बदलाव का नाम है बसंत

ऋतुराज बसंत यानी सभी ऋतुओं में श्रेष्ठ। कंपकंपा देने वाली सर्दी के बाद सुहाने बयार का मौसम। कलियों और फूलों का मौसम। उन पर मंडराते भंवरों और तितलियों का मौसम। यानी पूरे वर्ष में अगर हर मायने में बदलाव नजर आता है तो कहलाता है बसंत। पेश है एक रिपोर्ट-
मेरी जिंदगी का बसंत : आठ साल के बेटे को भूख लगने पर कॉलेज की कैंटीन लेकर गई। बेटे ने कैंटीन में काम रहे एक व्यक्ति को नमस्ते की। उससे बात करना शुरू कर दिया। मेरे मना करने पर वह बोला, मां आपने सबसे प्यार से बातें करने के लिए कहा था। चौकीदार रोजाना जवाब देता है। यह सुनकर मुझ में छोटे-बड़े को लेकर भेदभाव की भावना खत्म हो गई। 8 साल से यह लगातार जारी है। यह उत्साह और खुशी भर देता। यही बदलाव मेरी जिंदगी का बसंत है।
-कल्पना पंडित, प्रोफेसर, एमएनआईटी
सखी बसंत आया, नवोत्कर्ष छाया..
महाप्राण कवि निराला का जन्म बसंत पंचमी को ही हुआ। संभवत: इसी कारण उन्होंने कविता लिखी।
सखी बसंत आया, नवोत्कर्ष छाया।
किसलय बसना, नव वय लतिका
मिली मधुर पिय, उर तरूपतिका
कविवर निराला अतीत के पंखों पर सवार होकर उस जमाने में पहुंच गए, जहां बसंतोत्सव मदनोत्सव के रूप में मनाया जाता था। सारा नगर लोगों की करतल ध्वनि, मधुर संगीत और मृदंग के जयघोष से गूंज उठता था। सुगंधित अबीर दसों दिशाएं रंगीन हो उठती थीं। मधुमत नगर विलासिनियों के सामने जो भी पुरुष पड़ता उस पर प्रणय का रंग जबरदस्ती उंडेल दिया जाता। इसी कारण से वे नव लताओं को तरू रूपी पुरुषों से अभिसार करवा रहे हैं। कवि निराला ही नहीं वरन अन्य संत कवि भी जीवन में हमेशा बसंत रितु की बात करते हैं।
सदा दिवाली सेत की, आठों प्रहर बसंत
अर्थात भाई हमारे पास कुछ भी ना हो, लेकिन हम आनंद में नहीं परमानंद में हैं। हमेशा बसंत ही बसंत है। फक्कड़पन की मस्ती में दादू, कबीर, रैदास तो कह देते हैं पर आम आदमी यह दिल कहां से लावे। इसी कारण बसंत में भी लिहाफ ओढ़कर सोने वाले मेरे जैसे इंसान के दरवाजे पर बसंत दस्तक देकर कहता है, दरवाजा खोल मैं बसंत हूं, तो जड़ता और गहरा जाती है कि उधारी मांगने वाला बसंत अरोड़ा आ गया है।
बासी रोटी रात की कुछ मिर्च, कुछ प्याज। जब घर पर आ ही गए तो जीमों हे रितुराज।
खिलखिलाते खेत, हिलती डालियां, मंडराते हुए फूलों पर भौंरों की गुंजार को हम ओढ़े हुए तनाव और थकान के कारण अनदेखा कर रहे हैं। बसंत का अर्थ है पतझड़ के बाद का परिवर्तन, पुराने के बाद का नयापन। आज नएपन को रोका जा रहा है। आज भी किसी पार्क में बासंती सपनों को बुनते प्रणय युगलों को देखते हैं, तो हम संस्कार हीनता के नाम पर नैतिक ठेकेदार के रूप में खड़े हो जाते हैं। यह बसंत की चौकीदारी है। हम स्वागत करें बसंत का, बदलाव का, प्रकृति के नवांकुर विचारों का।

पर्वत पर आग जला बासंती रात में
नाच रहे हैं, हम तुम हाथ दिए हाथ में ।

बाय इन्विटेशन
प्रदीप सैनी
प्रधानाचार्य एवं कवि।

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