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13 जनवरी 2012

एक डोर से एक साथ बाबू खान उड़ाता है सौ पतंग



आंख बरेली शहर में खोली, जहां पतंग की आसमान से कुछ ज्यादा ही दोस्ती है। इस शहर का मांझा तो देश की हर जगह पर जाता है। जब बहुत छोटा था तो आसमान में इन पतंगों की कलाबाजियां देखा करता था। कभी सबसे आगे निकलने की होड़ तो कभी आसमानी बिसात पर हार और जीत का दिलचस्प खेल।

और न जाने कब मैंने पतंग उड़ाना भी सीख लिया। बहुत छोटा था तभी मां-बाप गुजर गए और दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए पड़ोस में रहने वाले साहबजादे मियां की दुकान पर पतंगें बनाने लगा। कह सकता हूं कि साहबजादे मियां ही मेरे उस्ताद थे। हालांकि उन्होंने मुझे पतंगबाजी करना नहीं सिखाया, लेकिन पतंग बनाने का हुनर तो दिया ही है।

बरेली की जिस दुकान पर मैं काम करता था, वहां अलग-अलग शहरों से लोग आते थे। ऐसे ही एक बार जयपुर से कोई व्यापारी आया और मुझे अपने साथ जयपुर ले आया। आज तो सत्तर साल का हो चला हूं। जब जयपुर आया था उस वक्त उम्र सोलह के करीब थी। यहां आने के बाद तो किस्मत ने भी मेरा हाथ पकड़ लिया।

पहली बार मैंने अहमदाबाद के पतंगोत्सव में हिस्सा लिया। उसके बाद लगातार छह साल अच्छी पतंग बनाने के लिए फर्स्ट प्राइज भी मिला। मैंने उस वक्त कागज की कतरन से पतंग बनाई थी। ऐसे ही कागज की कतरनों से दिलीप कुमार साहब, ज्योति बसु और जयपुर के पूर्व महाराजा भवानी सिंह की फोटो वाली पतंगें भी बनाई हैं। दिलीप साहब ने मुझे इस पतंग के लिए एक तारीफाना खत भी लिखा था।

पतंगोत्सव की बात की जाए तो मैं फ्रांस, कनाडा, ताइवान, हांगकांग और भारत में लगभग हर जगह पतंगोत्सव में हिस्सा ले चुका हूं। हां, एक डोर से एकसाथ सौ पतंगें उड़ाने का हुनर तो बस खुदा की देन है। पिछले दस सालों से मैं इस तरह से पतंग उड़ा रहा हूं। चार साल पहले गोवा में हुए फेस्टिवल में मैंने एक डोर से पांच सौ पतंगें उड़ाई थीं।

अब बूढ़ा हो चला हूं। हौसला तो वही है, लेकिन तबीयत साथ नहीं देती। अब बाहर होने वाली प्रदर्शनियों और उत्सवों में कम ही जा पाता हूं, लेकिन शहर में होने वाले आयोजनों के लिए हर वक्त तैयार हूं। अपनी विरासत आगे सौंपना चाहता हूं। मेरे दोनों बेटे फिरोज और फरीद भी पतंगबाजी में हैं। पोतों को भी सिखा रहा हूं।

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