चिठिये के साथ बंधा एक बड़ा घुंघरू डाकिए की खास पहचान होता था। उस जमाने में डाकिए का संपर्क राज घरानों से होता था। इसलिए डाकिए के घुंघरू की गूंज के साथ ही लोग सम्मान के साथ उनके लिए रास्ता छोड़ दिया करते थे।
इतिहास के जानकारों की मानें तो सीकर में राव माधोसिंह के शासन में बावड़ी गेट स्थित तोदानी की गली में डाकघर की शुरुआत हुई। इसके बाद तात्या टोपे पार्क के पास अलग से भवन बनाकर डाक तार विभाग की शुरू किया। इसी बिल्डिंग में 1966 से अधीक्षक कार्यालय शुरू हुआ।
डाक सेवा में परिवार की तीसरी पीढ़ी
डाक विभाग में सेवा दे रहे परिवार की तीसरी पीढ़ी के भरतकुमार (सीबीसीओ क्लर्क) बताते हैं कि उनके दादा थानीराम सैनी पोस्टमैन थे। जो सूरजगढ़ से लोसल तक पैदल डाक बांटते थे। उस जमाने में डाक की सुरक्षा गांव के ठाकुर के जिम्मे थी।
एक गांव में डाक बांटने के बाद ठाकुर के गार्ड डाकिए को दूसरे गांव तक सुरक्षित पहुंचाते थे। उस दौर में गांव में एक महीने में एक चक्कर लगता था। भरतकुमार के पिता हीरालाल भी डाक विभाग में बतौर क्लर्क रहे। गांवों में सड़क नहीं होने से उस समय पैदल ही डाक बांटी जाती थी।
एक के जिम्मे 24 गांवों की डाक
बतौर पोस्टमैन सीकर से नौकरी की शुरूआत, रिटायरमेंट और यहीं से पेंशन ले रहे 86 वर्षीय रघुनाथप्रसाद सैनी ने विभाग में काफी बदलाव देखें हैं। 1946 में ज्वाइनिंग के समय उनके पास 24 गांवों में डाक बांटने का जिम्मा था। हर गांव में सात दिन बाद डाक देनी होती थी।
52 रुपए छह आने में नौकरी की शुरूआत करने वाले सैनी आज 6642 रुपए पेंशन पा रहे हैं। पांचवीं पास सैनी ने 40 साल की नौकरी में हर काम अंग्रेजी में किया। साल में एक बार राजा की ओर से पांच चांदी के सिक्के बतौर इनाम मिलते थे।
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