यही कारण है कि जिस घर में किलकारियां गूंजती हैं, किन्नर वहां पहुँच जाते हैं। ये किन्नर भारतीय समाज में एक मजबूत सांस्कृतिक प्रवाह लिए हुए हैं। लेकिन, इत्तफाक ऐसा कि मानवीय मूल्यों के इस ऐतिहासिक धरोहर को आज भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। बिहार की बात करें तो यहाँ किन्नरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है।
किन्नरों का दर्द न जाने कोई
किन्नर जो समाज से कटे हुए हैं, उनके अन्दर भी दर्द है। ये अगल बात है कि इन किन्नरों का कोई दर्द नहीं जानता। सोनू किन्नर कहते हैं कि उन्हें अपने परिवार, माता-पिता, भाई-बहन आदि किसी की उन्हें याद नहीं। जब वे काफी छोटे थे तभी उनको इस शारीरिक स्थिति की वजह से काफी तकलीफ उठानी पड़ती थी। सब तिरस्कृत भाव से देखते थे। उनके एक अन्य सहयोगी सोनी किन्नर का दर्द भी अमूमन यही है। उन्हें भी अपने परिवार के बारे में चर्चा करना अच्छा नहीं लगता है। परिवार की याद तो उन्हें है लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को वे याद करना नहीं चाहते। वो कहती है कि जब ईश्वर ने ही हमारे साथ इंसाफ नहीं किया तो फिर दूसरों से कैसी शिकायत।
बीमारियों से भी नहीं हैं अछूते
सामान्य इंसानों से अलहदा ये किन्नर इंसानी बीमारियों से अछूते नहीं हैं। इन्हें मधुमेह (डायबिटिज़) समेत कई बीमारियों ने जकड रखा है। अभाव और गरीबी की स्थिति में ये डॉक्टर और दवाई के लिए कोशिश भी नहीं करते। नाच-गाने के दरमयान चक्कर आने पर उन्हें डॉक्टरी जांच में अपनी इस बीमारी का पता चला परंतु फिर भी इसके इलाज के प्रति वे उदासीन बने हुए हैं।
अस्तित्व बरकरार रखने के लिए कर रहा संघर्ष
मानव का तीसरा रूप किन्नर। आश्चर्य ही नहीं रहस्य और उपहास के साथ-साथ उपेक्षा को भी समेटे हुए। अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए संघर्षरत। गरीबी और बेचारगी का झेल रहे दंश। आज भी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर। घर में किसी नए बच्चे के जन्म पर नाच गाना कर थोड़े पैसे ले इनके जीवन की गाड़ी चल रही है।
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