हाईकोर्ट ने कहा कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के नियम व राज्य सरकार के 7 अक्टूबर 2010 को जारी आदेश के अनुसार जेनेरिक दवाइयां नहीं लिखने वाले डॉक्टरों को कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा।
मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा व न्यायाधीश कैलाश चंद्र जोशी की खंडपीठ ने शनिवार को यह आदेश विजय मेहता व राजेश कुमार माथुर की ओर से दायर जनहित याचिकाओं पर दिया।
मेहता ने दवाइयों की बढ़ती कीमतों को लेकर डॉक्टरों को जेनेरिक नाम से दवाइयां लिखने के लिए निर्देशित किए जाने का आग्रह किया था, जबकि माथुर ने राज्य सरकार की ओर से वर्ष 2005 में जारी सूची में कुछ और जेनेरिक दवाइयों के नाम जोड़ने की अपील की थी।
हाईकोर्ट ने 29 मार्च 2011 को एमसीआई से इस बारे में राय मांगी थी। काउंसिल ने इस पर 10 मई को मीटिंग बुलाकर प्रस्ताव पारित किया और नियम 1.5 के तहत जारी निर्देशों को अधिकृत बताते हुए राज्य सरकार को भेजा। सरकार ने 7 अक्टूबर को एमसीआई के प्रस्ताव को मंजूर कर हाईकोर्ट में शपथ-पत्र के साथ पेश किया था।
जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं का एक जैसा असर
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की जयपुर ब्रांच के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. ईश मुंजाल बताते हैं कि जेनेरिक दवा ब्रांडेड दवा का ही समरूप है जो कि रासायनिक रूप, शुद्धता मात्रा, सुरक्षा व ताकत आदि में ब्रांडेड दवा के समान है।
ब्रांडेड दवा के समान ही इसकी खुराक ली जाती है और यह उसी के समान असर करती है। जैनेरिक दवाओं में प्रयुक्त सॉल्ट ब्रांडेड दवाओं वाले ही हैं। दोनों प्रकार की दवाओं के स्टेंडर्ड भी समान हैं।
डीकंट्रोल्ड ड्रग्स के कारण लुटते हैं मरीज
देश और प्रदेश में ज्यादातर इस्तेमाल होने वाली दवाएं ऐसी हैं जिनकी कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। इनका निर्धारण दवा निर्माता कंपनी करती है और यह डीकंट्रोल्ड ड्रग्स की श्रेणी में आती हैं।
इनकी संख्या करीब 350 के आसपास है। इन दवाओं में कमीशन के भारी खेल का खामियाजा आखिरकार मरीज को भुगतना पड़ता है। कंट्रोल्ड ड्रग्स श्रेणी में सौ से भी कम दवाएं हैं और इनकी एमआरपी सरकारी निर्देशन में एक प्रक्रिया के तहत तय होती है।
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