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28 सितंबर 2011

अपने-पराए की पहचान हो तो दुश्मनों में खोजे जा सकते है दोस्त

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व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा में अक्सर लोग यह नहीं जान पाते हैं कि कौन अपना है और कौन पराया। कई बार हितैषियों का त्याग हो जाता है और दुश्मन गले लगा लिए जाते हैं। जो लोग ये मानते हैं कि व्यवसायिक रिश्ते एक तय समय सीमा तक ही गर्माहट भरे होते हैं, वे शायद गलत हैं।

व्यवसायिक रिश्तों में भी अगर अपने पराए की पहचान हो, उस रिश्ते को थोड़ा प्रेम और विश्वास से सींचा जाए तो वो भी निजी रिश्तों की तरह लंबे समय टिका रह सकता है।

आज की परिणाम केंद्रीत व्यवस्था में ऐसा करना मुश्किल है लेकिन अगर थोड़ा समझदारी से काम लिया जाए तो आप अपने प्रतिस्पर्धी के खेमों से भी अपने लोग चुन सकते हैं। आवश्यकता अपने अनुभव और प्रतिभा से ऐसे लोगों को पहचानने और फिर अपने व्यवहार से उनका विश्वास जीतने की।

सुंदर कांड के एक बहुत ही रोचक प्रसंग में चलते हैं। देखिए हनुमान एक बड़े अभियान पर निकले हैं। लंका में सीता की खोज करनी है। समुद्र लांघकर, कई राक्षसों का सामना करते हुए पहुंचे हैं। हम भी जब व्यवसाय में कूदते हैं तो वो भी समुद्र लांघने जैसा ही है लेकिन हम थोड़े प्रयासों में ही थक जाते हैं, बुद्धि विचलित होने लगती है। हनुमानजी सीखा रहे हैं कैसे अपनी बुद्धि को अगर स्थिर कर लिया जाए तो दुश्मनों के शिविर में भी अपने लोग तैयार किए जा सकते हैं।

सीता को खोजते-खोजते हनुमान विभीषण के घर तक पहुंच गए। उन्होंने कुछ चिन्हों से ही जान लिया कि यहां जो व्यक्ति रहता है वो राम के काम आ सकता है। विभीषण से मित्रता की। उसे भरोसा दिलाया कि राम अपनी शरण में आने वाले को पूरे स्नेह से रखते हैं। हनुमान ने विभीषण को अपनी प्रेमभरी भाषा में एक मौन निमंत्रण दे दिया। राम की शरण में आने का। विभीषण जो अभी तक लंका में उपेक्षित से थे, उन्होंने भी ये मौका ताड़ लिया।

एक रिश्ता बन गया। प्रेम उपजा , विश्वास दृढ़ हुआ और विभीषण ने लंका छोड़कर राम की शरण ली। राम ने भी हनुमान के विश्वास को पूरी तरह रखा, विभीषण से मिलते ही उसका राजतिलक कर दिया। मित्र बना लिया।

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