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14 अगस्त 2011

ये है भ्रष्टाचार की जांच के पीछे का 'भ्रष्टाचार'

आखिर पीजे थॉमस में क्या खास था कि सरकार ने उन पर लगे आरोपों और नेता विपक्ष की आपत्ति के बावजूद उन्हें सीवीसी नियुक्त कर दिया? भास्कर ने मालूम किया भ्रष्टाचार की जांच कर रही विभिन्न खुफिया एजेंसियों के काम के बारे में और पता लगाया कैसे होती है उनके शीर्ष पदों पर नियुक्तियां। और और इन एजेंसियों के शीर्ष पदों के लिए क्या राजनीति होती है और कैसे?

केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी)
काम- भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी
नियुक्ति - प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की सदस्यता वाली समिति की सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं नियुक्ति।
पूरे देश में भ्रष्टाचार की किसी भी शिकायत की जांच कराने वाली एजेंसी सीवीसी के मुखिया पीजे थॉमस की नियुक्ति की प्रक्रिया अपने आप में कई राज खोलती है। थॉमस केरल के पॉमोलीन आयात घोटाले में फंसे थे। केंद्र सरकार में सचिव बनने के लिए जरूरी केंद्र में दो साल के डेपुटेशन का अनुभव भी उनके पास नहीं था। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने उन्हें सचिव बनाया। उनकी नियुक्ति पर ज्यादा लोगों का ध्यान न जाए इसलिए उन्हें कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले संसदीय कार्य मंत्रालय में सचिव बनाया गया।

फिर एक रुटीन ट्रांस्फर की तरह उन्हें हाई प्रोफाइल टेलीकॉम विभाग में सचिव बना दिया। उनकी ओर लोगों का ध्यान तब गया जब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी ने उन्हें सीवीसी नियुक्त किया। इस कमेटी में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने तो प्रधानमंत्री का समर्थन किया लेकिन लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने कड़ी आपत्ति जताई। थॉमस की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले पूर्व सीबीआई अधिकारी बीआर लाल कहते हैं कि बाजार भाव से कहीं ज्यादा भाव पर पामोलीन खरीदना भ्रष्टाचार था। प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि ऐसे भ्रष्ट आदमी को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का मुखिया बनाने के पीछे उनकी क्या मजबूरी थी।

भ्रष्ट नौकरशाहों की सूची को इंटरनेट पर डालने का क्रांतिकारी कदम उठाने वाले पूर्व सीवीसी एन विट्टल कहते हैं कि थॉमस की नियुक्ति नियमों में कमी की वजह से हुई है। नियमों में यह कहीं नहीं है कि केवल बेदाग व्यक्ति को ही सीवीसी बनाया जा सकता है और न ही यह है कि उसे चयन समिति द्वारा सर्वसम्मति से चुना जाएगा। अगर ये नियम होते तो थॉमस सीवीसी नहीं बन सकते थे।

सीबीआई
* 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पिछले सप्ताह पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा को सीबीआई ने शाम तीन बजे गिरफ्तार किया। लेकिन गिरफ्तारी की घोषणा कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने टीवी चैनलों पर ढाई बजे ही कर दी थी। आखिर सीबीआई किसके कहने पर काम कर रही है और उसका प्रवक्ता कौन है?

* उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान मंगलवार को एटॉर्नी जनरल ई वाहनवती ने कहा कि अदालत को सीबीआई जांच के आदेश नहीं देना चाहिए क्योंकि यह केवल भ्रष्टाचार का मामला है और इसमें मूल अधिकारों का हनन नहीं है। इस पर कोर्ट ने मुलायम सिंह के वकीलों से कहा कि जब खुद सरकारी वकील उनके पक्ष में बोल रहे हैं तो उन्हें जिरह करने की जरूरत नहीं है।

मुलायम सिंह और मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले पिछले छह सालों से जांच एजेंसियों की इसी तरह की राजनीतिक मजबूरियों के चलते जहां के तहां लटके हैं। जांच अधिकारी मानते हैं कि उनके पास दोनों के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं लेकिन ऊपर से हरी झंडी न मिलने से उनके हाथ पैर बंधे हैं। आखिर केंद्र सरकार सपा के 22 और बसपा के 21 सांसदों के बाहरी समर्थन पर ही तो चल रही है।

इस बारे में पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह सीबीआई से हाल ही में रिटायर हुए निदेशक अश्विनी कुमार का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इस पद के लिए सीवीसी की अध्यक्षता वाली द्वारा कमेटी द्वारा तैयार तीन शीर्ष पुलिस अफसरों के पैनल में उनका नाम दूसरे स्थान पर था। उनके चयन पर इसलिए भी विवाद उठा क्योंकि वे कभी बहुत काबिल अफसर नहीं माने गए। हां, एक केंद्रीय मंत्री से उनकी निकटता के चर्चे जरूर सुर्खियों में रहे। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह कहते हैं कि खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों की यह हालत है कि अगर सरकार उन्हें बैठने को कहती है तो वे लेट जाते हैं।

मौजूदा सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह जैसे सख्त अफसर की नियुक्ति के पीछे माना जा रहा है कि थॉमस की नियुक्ति से उठे विवाद के तुरंत बाद सरकार कोई और विवाद नहीं चाहती थी। इसीलिए पुलिस पदक व आईपीएस पदक से सम्मानित वरिष्ठतम अफसर को नियुक्त किया।

प्रवर्तन निदेशालय
फिलहाल केंद्र शासित कॉडर के अरुण माथुर एनफोर्समेंट निदेशक (ईडी) हैं। आर्थिक अपराधों की जांच के मुखिया के पद पर आने से पहले वे दिल्ली जल बोर्ड के अध्यक्ष थे। उस दौरान दिल्ली के ग्रेटर कैलाश क्षेत्र में उनके द्वारा कराए कामों को लेकर वे विवाद में थे। इस मामले में उन्हें अदालत ने समन भी किया था लेकिन तब तक वे ईडी बन चुके थे। हालांकि बाद में कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया था।

ईडी को हवाला, मनीलॉंड्रिंग और फेमा के मामलों की जांच करनी होती है। माथुर को दिल्ली के शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व का खास माना जाता है। इस पद पर रहकर उन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों, आईपीएल, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, मधु कोड़ा के खिलाफ कार्रवाई, सत्यम इंफोटेक के एमडी एस राजू के खिलाफ मामलों की जांच के अलावा दिल्ली की रियल एस्टेट कंपनियों के खिलाफ छापे की कार्रवाई जैसे मामलों की निगरानी की हैं।

उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने वाली समिति के अध्यक्ष रहे पूर्व सीवीसी प्रत्यूष सिन्हा कहते हैं कि माथुर की नियुक्ति पूरी तरह नियमों के अनुसार हुई। आईएएस के चार वरिष्ठतम बैच के अफसरों में छांटकर समिति ने जो तीन लोगों की सूची तैयार की थी उसमें वे सबसे ऊपर थे। उनका कहना है कि जल बोर्ड के कार्यकाल के दौरान उठा कोई विवाद उनके सामने नहीं आया था।

रॉ --जो काम देश के अंदर आईबी करती है वही काम विदेशों में रॉ करती है यानी काउंटर इंटेलिजेंस या दूसरे देशों के प्रमुख लोगों की गतिविधियों की जानकारी जमा करना। लेकिन दूसरी खुफिया एजेंसियों की तरह रॉ के निदेशक की नियुक्ति भी राजनीतिक फैसला हो गया है। ताजा मामला मौजूदा निदेशक संजीव त्रिपाठी का है। उन्हें रॉ की सेवा से 31 दिसंबर 2010 को रिटायर होना था। तब वे एडिशनल डायरेक्टर थे। और तब डायरेक्टर के पद पर आसीन के सी वर्मा का रिटायरमेंट 31 जनवरी को होना था।

लेकिन अचानक वर्मा ने 30 दिसंबर 2010 को पद से इस्तीफा दे दिया। त्रिपाठी रिटायर होने से बच गए। सरकार ने उन्हें दो साल के लिए रॉ का निदेशक बना दिया। या यूं कहें कि रिटायरमेंट की जगह उन्हें दो साल का न सिर्फ एक्सटेंशन दिया बल्कि प्रमोशन भी। हां, इस त्याग का लाभ वर्मा को भी मिला। उन्हें भी दो साल के लिए साइबर (इंटरनेट) अपराधों के लिए बनी खुफिया एजेंसी नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गनाइजेशन (एनटीआरओ) का प्रमुख बना दिया गया। यह भी मात्र संयोग नहीं है कि त्रिपाठी के पिता गौरी शंकर त्रिपाठी भी रॉ में काम कर चुके रहे हैं।

गुप्तचर ब्यूरो (आईबी)
इस एजेंसी को प्रधानमंत्री का आंख और कान माना जाता है। पूरे देश में राजनीति और आतंकवाद की खुफिया जानकारी जुटाने का काम इसके पास है। इसके निदेशक (डीआईबी) रोज सुबह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर उन्हें देश में चल रही गतिविधियों की जानकारी देते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री अपने सबसे विश्वस्त आदमी को ही इस पद पर बिठाते हैं। 1977 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी खत्म कर चुनाव कराने का फैसला आईबी की रिपोर्ट पर ही किया था।

अधिकतर राजनेताओं के फोन टेप करने का काम भी यही एजेंसी करती है। राष्टीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) एम के नारायणन खुद डीआईबी रह चुके हैं। उनकी नियुक्ति के बाद से डीआईबी द्वारा प्रधानमंत्री को रोज सुबह दी जाने वाली ब्रीफिंग की प्रक्रिया बंद कर दी गई है। अब डीआईबी केवल नारायणन को ही ब्रीफ करते हैं। फिलहाल आईपीएस अधिकारी नेहचल संधू डीआईबी हैं

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