अपनी स्वतंत्रता और दूसरे की गुलामी इंसान की पुरानी पसंद है। इस मनोविज्ञान को हालात में बदलकर पुरुष समाज ने अधिक लाभ उठाया है और परतंत्रता को स्त्रियों से जोड़ दिया गया।
अपने देश के स्वतंत्रता दिवस पर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने के साथ हमें इस समय मनुष्य की स्वतंत्रता पर भी विचार करना चाहिए। हम भौगोलिक स्वतंत्र हुए, मानसिक परतंत्रता से मुक्त नहीं हो पाए। इसकी कीमत जिन-जिन लोगों ने चुकाई, उसमें एक बड़ा वर्ग माताओं और बहनों का है।
जीवन में जितनी लाचारी होगी, उतना ही सम्मान कम होगा और माताओं-बहनों के साथ ऐसा ही होता है। यह भी सही है कि पूजा-पाठ, धर्म-कर्म में नारी वर्ग अधिक संलग्न रहता है। आज भी स्त्रियां पूजा-पाठ के मामले में कर्मकांड से अधिक जुड़ी हुई हैं, इसलिए वे केवल शरीर पर अधिक टिक गईं।
माताएं-बहनें जितना मन व आत्मा पर काम अधिक करेंगी, यानी योग, प्राणायाम, ध्यान से जुड़ेंगी, उतना वे स्वतंत्र रहेंगी और स्वतंत्रता के अर्थ भी उनके लिए बदल जाएंगे। ध्यान की अवस्था स्त्रियों को प्राप्त भी जल्दी होती है और परिणाम भी अधिक दिव्य होंगे। स्वतंत्रता के लिए जिस आत्मविश्वास की जरूरत है, वह इसी योग-पथ से प्राप्त होगा।
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