अब तो इंतिहा हो गयी ...
हाँ , अबतो
इंतिहा हो गयी
ज़ुल्म की तुम्हारे
ऐ सितमगर
तुम खुद ही बता दो
आखिर कब तक , आखिर कब तक
ढहाओगे ज़ुल्म तुम मुझ पर
बतादो के ज़ुल्म की इंतिहा मुझे
तो फिर
तुम्हारी ख्वाहिश पूरी हो
तुम्हारी मुझ पर ज़ुल्म ढाने की तमन्ना पूरी हो
बस इसीलियें
में फिर से खुद को
ज़ुल्म सहने के लियें
तय्यार कर लूंगा
कुछ इसी तरह से
में तेरी ख़ुशी में
खुद को
शामिल कर लूंगा
मुझ पर किये गए ज़ुल्मों से
जब मिलेगा तुझे सुकून
में भी यह सोच कर
मेने तेरी हर ख्वाहिश पूरी की है
खुद को भी
सुकून में कर लूंगा ............अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
सच में अब इन्तहा हो गयी... प्रभावी रचना...
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