संतों की ऐसी वाणी भी हमारे अहंकार के सामने व्यर्थ हो जाती है। बड़े बनने की धृष्टता पर हम मर मिटने को भी राजी हो जाते हैं, लेकिन याद रखें कि अहंकार के लिए मरने वाले कभी बड़े नहीं बन सकते। बड़े वे होते हैं, जो समर्पण के साथ जीते हैं। जैसे दही बड़ा। किसी ने दही बड़े से पूछा - लोग तुम्हें बड़ा क्यों कहते हैं? उसने कहा - मैं दही में पड़ा हूं इसलिए बड़ा हूं। दही बड़े की यह आत्मकथा हमें बताती है कि पड़े रहने का अर्थ है समर्पण। समर्पण हमारे भीतर की विशेषताओं को स्थापित करता है। समर्पण में सीखने के लिए ऊर्जा का जन्म होता है।
जो सीख लेते हैं, वे ज्येष्ठ (बड़े) के साथ श्रेष्ठ भी हो जाते हैं और जो नहीं सीख पाते, वे निश्चेष्ट (मृत) हो जाते हैं। समर्पण की एक और विशेषता है कि वह हमें वर्तमान पर टिकाता है। जब अतीत व भविष्य से मुक्त होंगे, तब वह हमारा वर्तमान होगा और वर्तमान में ही जागरण की अनुभूति होती है।
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