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10 जुलाई 2011

खजाने खरबों के, लेकिन कानून एक भी नहीं!

खजाने खरबों के, लेकिन कानून एक भी नहीं!

 
तिरुवनंतपुरम तिरुवनंतपुरम के पद्मनाभ स्वामी मंदिर से मिले खजाने की कीमत पांच लाख करोड़ रुपए तक हो सकती है। आजादी के वक्त देश की चार बड़ी रियासतों के खजानों की मौजूदा कीमत भी चार लाख करोड़ के आसपास आंकी गई है। लेकिन कहीं ये सरकार के कब्जे में हैं, कहीं अदालतों में मामले उलझे हैं, कहीं मंदिरों की मिल्कियत है और कहीं राजघरानों के पास। इस दौलत का क्या हो, इसके लिए एक नीति-नियम नहीं है।
खजाने के खुलासे के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस कृष्णा अय्यर का कहना था कि एक लाख करोड़ रुपए में तीन साल तक देश की रोजगार गारंटी योजना का काम चल जाएगा। दैनिक भास्कर ने देश के जाने-माने इतिहासकारों और मुद्राविज्ञानियों के सामने यही सवाल रखा- इस दौलत का क्या किया जाए? पद्मनाभ स्वामी मंदिर के मामले में इंडियन कौंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च (आईसीएचआर) के पूर्व चेयरमैन एमजीएस नारायणन कहते हैं कि खजाना मंदिर की ही मिल्कियत है। सरकार अकेले कोई एक तरफा फैसला नहीं ले सकती। वैसे भी मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और कोर्ट की पहल से ही खजाना सामने आया। ऐसे में खजाने के भविष्य का निर्णय सुप्रीम कोर्ट को ही करना होगा।
सरकार के कब्जे में पहले ही कई राजघरानों के खजाने हैं। मसलन हैदराबाद के निजाम और जम्मू-कश्मीर की पूर्व रियासत का खजाना। जम्मू के खजाने की मौजूदा कीमत करीब 20 हजार करोड़ रुपए आंकी गई है। कर्णसिंह का मालिकाना हक का दावा खारिज होने के बाद यह खजाना जम्मू-कश्मीर सरकार के कब्जे में गया, लेकिन आज इसके बारे में कम लोगों को ही पता है। जम्मू यूनिवर्सिटी में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शैलेंद्रसिंह कहते हैं, ‘खजाने को श्रीनगर शिफ्ट किया गया तो इसकी कई चीजें गायब हुईं। लेकिन सरकार ने चुप्पी साधे रखी।’
यही हाल निजाम के खजाने का है, जिसे 1967 में सरकार ने 240 करोड़ रुपए में ले लिया था। निजाम ट्रस्ट के ट्रस्टी शाहिद हुसैन बताते हैं कि उस वक्त इस खजाने के जानकारों ने असली कीमत ढाई से सात हजार करोड़ आंकी थी। अकेला जैकब हीरा ही चार सौ करोड़ कीमत का था। हम नहीं जानते इसके बाद सरकार ने क्या किया? जबकि इन ऐतिहासिक विरासतों के प्रति पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए। बेहतर हो सरकार जनहित के कामों में इनका बेहतर इस्तेमाल करे। कम से कम पता तो हो कि सरकार के पास प्लान क्या है?
इन अनुभवों से जाहिर है कि सिर्फ सरकारों के भरोसे कुछ नहीं छोड़ा जा सकता। कई किताबों के लेखक प्रसिद्ध इतिहासविद् देवेंद्र हांडा साफ कहते हैं कि कहने को सरकारें जनहित के ही काम कर रही हैं, लेकिन जनता को ही भरोसा नहीं है कि वे खजानों के प्रति पूरी ईमानदारी से काम करेंगी। होना यह चाहिए कि खजानों की देखरेख कर रहे मंदिरों के मौजूदा ट्रस्ट ही स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और रोजगार की योजनाओं पर अमल करें। वे पारदर्शी होकर सरकारों से बेहतर कर सकते हैं। वैसे भी खजानों की दौलत मूलत: जनता की ही है, जिसे राज परिवारों ने मंदिरों के हवाले की या अपने कब्जे में। ऐसे सबूत हैं कि सूखा, अकाल, महामारी, बाढ़ जैसी आपात स्थितियों में पहले मंदिर आम लोगों की मदद करते थे।
इतिहासकारों का मत यह भी है कि सभी खजानों को एक नीति-नियम के दायरे में लाया जाए। एकेडमी ऑफ इंडियन न्यूमिस्मेटिक्स के निदेशक डॉ. एसके भट्ट इसके लिए एक राष्ट्रीय आयोग की जरूरत बताते हुए कहते हैं, ‘तीन साल के लिए इस आयोग में ईमानदार उद्योगपतियों, अर्थशास्त्रियों, कानूनविदें, श्रमिक संगठनों और सिविल सोसायटी के नुमाइंदों को लिया जाए। सबसे पहले मालदार मंदिरों और राजघरानों के खजानों की एक सूची बननी चाहिए ताकि देश को पता चले कि तहखानों या गोपनीय तिजोरियों में पड़ी कितनी दौलत देश के पास है। फिर इसके इस्तेमाल की बहस होनी चाहिए।’ डॉ. भट्ट का मत है कि राष्ट्रीय विकास में इसका उपयोग हो क्योंकि यह जनता की ही संपत्ति है। राजाओं को टैक्स वही चुकाती थी, जिसका इस्तेमाल उन्होंने मंदिर-मकबरे बनाने में किया।
पद्मनाभस्वामी मंदिर के अचानक खुले खजाने ने बताया कि एक अकेले मंदिर में जमा दौलत कई रा%यों के बजट से भी %यादा है। सरकार की कई अहम योजनाओं के सालाना बजट से भी %यादा। ऐसे में दूसरे मंदिरों, महलों और किलों में छिपी दौलत का आंकड़ा क्या होगा? जैसे जयपुर के जयगढ़ किले का रहस्यमय खजाना, जिसे खोजने की तमाम कोशिशें सरकार के स्तर पर 1975-76 में की जा चुकी हैं। इतिहासकारों का कहना है कि आजादी के बाद कई रियासतें अपनी जमापूंजी दबाकर बैठ गई थीं। राजनीतिक रूप से ताकतवर राजघरानों ने भी अपने खजाने बचा लिए।
मशहूर इतिहासविद् इरफान हबीब का नजरिया अलग है। वे कहते हैं, ‘ये खजाने सिर्फ संपत्ति भर नहीं हैं। इसे आज की करेंसी में नहीं तौलना चाहिए। यह सदियों पुरानी ऐतिहासिक विरासत है। यही इसका असली मूल्य है। इसे संग्रहालयों में सहेजकर इसका प्रचार करना चाहिए ताकि दुनिया देखे कि भारत किस तरह सोने की चिड़िया था।’
खजाने सिर्फ मंदिरों और राजघरानों तक ही सीमित नहीं हैं। अक्सर पुरातात्विक खुदाइयों में और अनायास भी प्राचीन महत्व की कीमती वस्तुएं उजागर होती रही हैं। जैसे दिल्ली में आईआईटी के भवन निर्माण के वक्त अलाउद्दीन खिलजी की टकसाल और हजारों सिक्के मिले थे। ये आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के संग्रह में मौजूद हैं।
1966 में उत्तरी अफगानिस्तान के बगलान नाम के स्थान पर करीब 20 हजार सोने की मूर्तियों का खजाना हाथ लगा था। यह खोज दुनिया भर में चर्चित रही। यह पता नहीं चल सका कि किसने इन मूर्तियांे को दबाकर छोड़ दिया। 1946 राजस्थान में बयाना के पास गुप्त काल के सोने के 21 सौ से %यादा सिक्कों का जखीरा एक खेत में मिला था। ये सिक्के मटकों में भरकर रखे गए थे। भरतपुर रियासत ने इन्हें अपने कब्जे में लेकर सुरक्षित रखा।
हरियाणा के सुघ गांव में पंजाब विवि की एक खोज में अशोक के समय बना स्तूप और सोने-चांदी के सिक्के हाथ लगे थे। पंजाब में देवगढ़ में गांव वालों को नींव खोदते वक्त चांदी के एक हजार सिक्के मिले। इस प्रोजेक्ट से जुड़े रहे डॉ. हांडा कहते हैं कि हमारी कमी यह है कि हमें अपनी विरासत की मार्केटिंग नहीं आती। ये भले ही छोटे खजाने हैं लेकिन इनका ऐतिहासिक मूल्य कहीं %यादा है। सभी तरह की इन पुरानी संपदाओं के लिए एक नीति-नियम बनने चाहिए।
मंदिर में कैसे जमा हुई दौलत?
पद्मनाभस्वामी मंदिर में जमा अकूत दौलत हिरण्यगर्भम् और तुलाभारम् अनुष्ठानों के समय जमा होती थी। इन अनुष्ठानों का जिक्र त्रावणकोर रियासत में 1878 में दीवान रहे एस. मेनन ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ त्रावणकोर: फ्राम अर्ली टाइम्स’ में विस्तार से किया है। चंडीगढ़ के इतिहासविद् देवेंद्र हांडा के संग्रह में मौजूद इस किताब में लिखा है कि यह मंदिर सन् 825 का है। 1025 में इसको चोल राजाओं के तमिल स्थापत्य के अनुसार नया रूप दिया गया।
1753 में हिरण्यगर्भम् अनुष्ठान मंे राजा ने चार सौ किलो सोने के सिक्के मंदिर को दान किए। हर चार-पांच साल में यह अनुष्ठान होता था। 1811-14 में दीवान जॉन मुनरो थे। उन्होंने मंदिर के रखरखाव के लिए कई बाग-बगीचे और कृषि भूमि दान की। 1829 से 1878 के बीच कई तुलाभारम् अनुष्ठान हुए, जिसमें राजा को सोने के तराजू पर सोने के सिक्कों व हीरे-जवाहरात से तौला जाता था और सारी बेशकीमती सामग्री मंदिर के खजाने को सौंप दी जाती थी।
ऐसे ही एक समारोह में 93 स्वर्ण मूर्तियां और जेवरों से भरे 120 सोने के कलश अर्पित किए गए थे। 1750 में राजा मात्र्तण्ड वर्मा ने अपना रा%य भगवान पद्मनाभस्वामी को समर्पित कर दिया। यहां से एक नया अनुष्ठान त्रिपदी दानम की परंपरा शुरू हुई।
जयगढ़ के खजाने का रहस्य कायम है?
पद्मनाभस्वामी मंदिर के छठे तहखाने की तरह जयपुर के जयगढ़ किले का खजाना आज तक रहस्य बना हुआ है। सवाई जयसिंह द्वितीय के विश्वासपात्र मंत्री राव कृपाराम ने 285 साल पहले खजाने का विवरण दर्ज किया था। आजादी के समय तक यह उन्हीं के परिजनों के पास सुरक्षित था।
केंद्र सरकार ने 1975-76 में एक साल तक किले को कब्जे में लेकर खजाने की खोज की जबर्दस्त मुहिम छेड़ी थी। ‘जयगढ़ : दॅ इन्विंसीबल फोर्ट ऑव आमेर’ के लेखक और इतिहासकार प्रो. आरएस खंगारोत बताते हैं, खुदाई में दिन-रात जुटे रहे 500 मजदूर जुटे थे।अगर कुछ मिला होता तो रहस्य नहीं रहता।
अफवाहों को बल इसलिए मिला क्योंकि किले से सेना की वापसी के वक्त भारीभरकम वाहनों को निकलने के लिए ट्रेफिक रोका गया था। खजाना आज भी रहस्य है।
खुलासा हुआ कहां से?
खंगारोत के अनुसार राव कृपाराम के परिजनों ने पहले तो महाराज भवानीसिंह से सौदेबाजी की कोशिशें की। लेकिन जब वे तैयार नहीं हुए तो राव कृपाराम के परिजनों ने बीजक गुप्तचर विभाग के तत्कालीन उपनिदेशक एस. वंचिनाथ को सौंप दिया। परीक्षण में यह 250 साल पुराना पाया गया।
और उन्होंने ही केंद्र सरकार को जयगढ़ के इस गुप्त खजाने की जानकारी दी। इसके बाद ही केंद्र सरकार ने इस प्रोजेक्ट को दॅ ट्रेजर हंट नाम दिया। खुदाई 52 फुट नीचे तक की गई थी। भारतीय सेना के 37 इंजीनियरों के साथ 156 सैनिकों की टीम भी इस काम में लगी।
जयगढ़ की पूर्व निदेशक चंद्रमणिसिंहकहती हैं, खुदाई में कुछ नहीं मिला था। यह इलाका काफी बड़ा था, जहां पूरे समय कडा़ पहरा रहता था। यहां कई पुरानी फौलादी सेफ भी मिली थीं। मेरा अनुमान है यहां खजाना तो था, लेकिन 1947 से पहले तक। जब रियासत टूटने लगीं तो इसे मोती डूंगरी में शिफ्ट कर दिया गया होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो मोती डूंगरी में खजाना मिलता कैसे?
खजाने आए कहां से?
राजघरानों की आमदनी का मुख्य स्त्रोत था खेती से मिलने वाला लगान। इसके अलावा कीमती खदानों, परिवहन और व्यापार पर भी कई तरह के टैक्स थे। मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर बिजौलिया रियासत मंे 79 प्रकार के टैक्स थे। निजाम हैदराबाद के पास गोलकुंडा की मशहूर हीरा खदानें थीं। युद्ध में पराजित रियासतों से हासिल लूट की संपत्ति भी खजानों में जमा होती रहती थी।
कितना धन है..
खजाने में एक टन सोने के सिक्के। इनमें कुछ नेपोलियन बोनापार्ट के दौर के हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने के 17 किलो सोने के सिक्के। इसके अलावा सोने के मुकुट, 18 फुट लंबा ढाई किलो वजनी सोने का नेकलेस, अंगूठी, हजारों आभूषण, हीरे, सोने की मूर्तियां और अन्य कीमती रत्न हैं।
1000 करोड़ रुपए
तिरुपति बालाजी मंदिर का डिपाजिट। सालाना
आय-600 करोड़ रुपए।
427 करोड़ रुपए सांईं बाबा मंदिर का निवेश। औसत आमदनी 165 करोड़ रुपए। गहने-जवाहरात 32.24 करोड़।
धन इतना कि देश की हालत सुधर जाए
शिक्षा पर 31 हजार करोड़, स्वास्थ्य पर 27 हजार करोड़ और रोजगार गारंटी योजना पर 45 हजार करोड़ रुपए का सालाना सरकारी बजट। मंदिरों और राजघरानों के खजानों की दौलत के आगे यह कुछ भी नहीं है। आजादी के पहले की सिर्फ चार बड़ी रियासतों के खजानों की ही मौजूदा कीमत का आकलन चार लाख करोड़ रुपए है।

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