देश को हजारों इंजीनियर, आईआईटीयन और डॉक्टर देने वाली इस शिक्षा नगरी में क्या एक भी ऐसा शख्स नहीं, जो चूहों का इलाज ढूंढ़कर हमारा आशियाना बचा सके ! अगर नहीं तो, फिर भी जैसा इस देश का सरकारी कायदा है, बस्ती उजाड़ने पर पुनर्वास किया जाता है। तो फिर हमें उस हक से भी वंचित क्यों किया जा रहा है। बुद्धिजीवियों का हम मूक परिंदों के प्रति आखिर यह कौनसा न्याय है?
आप सामथ्र्यवान हो, हठ करोगे तो शायद हम मूक प्राणी मान भी जाएं, लेकिन पुराने कोटा के दीन दादा व सिंधी कॉलोनी के मलकानी अंकल की तरह उन कई लोगों की तो सोचो। दाना तो बहाना है वे रोज सुबह अपने जज्बात हमसे बांटने आते हैं। पिछले 20 साल से चने-दानों के सहारे सकतपुरा की तुलसी व शांति बाई की आजीविका चल रही है। पिछले पांच दिन से खाली हाथ लौटते इन सबके चेहरों पर हमने गुस्सा देखा है। हमें इन पर यकीन है कि कोई सख्ती भी शायद इनको नहीं रोक पाए, कभी सुबह जल्दी तो कभी चुपके से ये हमें दाना डाल ही जाएंगे। रविवार व सोमवार को तुमने देख ही लिया कि अपनी छोटी-छोटी मुट्ठियों में दाने भरकर बच्चे किस तरह हमारी तरफ दौड़े चले आए। इसलिए हमारा भी यही अनुरोध है कि अब यह नाता मत टूटने दो। कुछ ऐसा करो कि आधुनिकता के साथ परंपरा का नाता जुड़ा रहे, बस हमारे ही दानों पर पलकर आज हमारे आशियाने के लिए खतरा बने ये ‘चूहे’ दूर हो जाएं।
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