आपका-अख्तर खान

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01 फ़रवरी 2011

क्यूँ देखता हूँ तुम्हे .................



क्यूँ देखता हूँ रोज़
सूरज की तरह
में तुम्हें
क्यूँ देखता हूँ रोज़
चाँद की तरह
में तुम्हें
क्यूँ देखता हूँ रोज़
चमकते तारों की तरह
में तुम्हे
जब तुमसे
चाँद ,तारे और सूरज की तरह
मुलाक़ात का
कोई वायदा भी नहीं हे
क्यूँ देखता हूँ
एक टक
यूँ ही
गुमसुम सा में तुम्हें ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

3 टिप्‍पणियां:

  1. बाज़ औकात उम्र कुछ यूँ गुजरती है, सुरूर मय मीना न साकी!
    खाली बोतल पे उंगलियाँ फिसलती हैं...रमेश

    जवाब देंहटाएं
  2. तुम कहो न कहो, ये तुम्हारी शरीक-इ-हयात है
    इनकी नज़रों में, खामोशियो में बस यही एक बात है...

    जवाब देंहटाएं

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