ऐ मेरे साजन
कल तुम
मेरे थे
मेरे घर के
आँगन थे
आज तुम
कहां हो
ऐ मेरे साजन
तुम ही तो थे
जो मुझे पुकार कर
सुबह
जगा देते थे
सूरज की
सुनहरी रौशनी में
अपनी मीठी
मुस्कान के साथ
मुझे नेहला देते थे
ऐ मेरे साजन
आज तुम कहां हो
तुम ही तो थे
जिन्हें देख कर
में रोता हुआ भी
मुस्कुरा देता था
बीमार भी था अगर
तो खुद
बिस्तर से
उठा देता था
अब तुम कहां हो
मुझे पता नहीं
लेकिन
तुम्हें ढूंढते ढूंढते
थक गया हूँ में
सडकों की खाक छान छान कर
तुम्हारी याद में भडक गया हूँ में
तो रुकों कहां हो तुम खाना हो तुम ..........
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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