एक तबस्सुम
जो सदा थी
लब पे मेरे
चुप रजाई ओडे
बेठे थे हम
लब लिए तबस्सुम
होले होले
वोह आयीं
दिखाए सब्ज़ बाग़ हमें
हम उठे और चल दिए पीछे उनके
बस ना वोह थे ना उनकी झलक
और जो तबस्सुम ख़्वाबों ख्यालों में थी साथ हमारे
वोह भी क्म्बस्ख्त
दूर हो गयी थी हमसे
होले होले ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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