ऐ पत्थर तुम क्या हो
क्यूँ ऐसा लगता हे
के तुम्हारा अस्तित्व नहीं हे
फिर सोचता हूँ पत्थर दिल पत्थर दिल महबूब
बहुत सूना हे , मिल का पत्थर जो लोगों का हमसफर साथी होता हे
कहीं तुम वोह पत्थर तो नहीं
फिर सोचा नहीं नहीं
तुम तो वोह पत्थर हो
जो एक मन्दिर में पूजा के लियें रखा जाता हे
फिर सोचा एक पत्थर तो मजनू को भी पढ़ा था
फिर सोचा नहीं वोह पत्थर भी नहीं कहीं तुम
शीशे के घरों में फेके जाने वाले पत्थर तो नहीं
फिर सोचता हूँ नहीं तुम तो जुलूसों पर दंगा भडकाने के लियें फेके जाने वाले पत्थर हो
सोचता हूँ तुम मन्दिर में तराश कर रखे जाने वाले पत्थर ही हो फिर सोचता हूँ तुम लोगों को छत घर देने वाले पत्थर हो जो कोई भी तुम पत्थर हो बस मेरे महबूब पत्थर से कम सख्त पत्थर हो। अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे मज़हब के लोग देख कर कहें कि अगर उम्मत ऐसी होती है,तो नबी कैसे होंगे? गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
02 अक्तूबर 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
..बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया..
जवाब देंहटाएंआदरणीय अख्तर खान अकेला जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
पत्थेर से जा कर ही पूछा जाये इतनी दिमागी कसरत से तो :)
जवाब देंहटाएं