वोह पत्थर
जो सर से मेरे
टकरा कर
ज़मीं पर
पढ़ा हे
खून का फ्न्व्वारा देख
मेरे सर का
वोह
बेजान
पत्थर भी
रो रहा हे
तुम तो
इंसान हो
तुम में तो जान हे
फिर यूँ
ईमान ,सच्चाई,इंसानियत
का कत्ल कर के भी
जमीर क्यूँ
तुम्हारा
सो रहा हे
वोह तो
पत्थर हे
जो
सर फोड़ कर
मेरा
यूँ रो रहा हे ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे मज़हब के लोग देख कर कहें कि अगर उम्मत ऐसी होती है,तो नबी कैसे होंगे? गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
31 अक्तूबर 2010
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जमीर क्यूँ
जवाब देंहटाएंतुम्हारा
सो रहा हे
sateek prashn hai!
maanav ki samvedanheenta par chot karti sundar rachna!
बहुत सार्थक लेखन ...ज़मीर को मार कर कुछ एहसास नहीं रहता ...
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
जवाब देंहटाएंकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
बहुत अच्छी लगी |बधाई
जवाब देंहटाएंआशा
एक बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
वाह, बहुत खूब...बहुत ही सुंदर कविता लिखी हे आपने...बधाई।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन!!
जवाब देंहटाएंपत्थर भी रोते हैं ..
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