आपका-अख्तर खान

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31 अक्टूबर 2010

पत्थर रो रहा हे

वोह पत्थर
जो सर से मेरे
टकरा कर
ज़मीं पर
पढ़ा हे
खून का फ्न्व्वारा देख
मेरे सर का
वोह
बेजान
पत्थर भी
रो रहा हे
तुम तो
इंसान हो
तुम में तो जान हे
फिर यूँ
ईमान ,सच्चाई,इंसानियत
का कत्ल कर के भी
जमीर क्यूँ
तुम्हारा
सो रहा हे
वोह तो
पत्थर हे
जो
सर फोड़ कर
मेरा
यूँ रो रहा हे ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

8 टिप्‍पणियां:

  1. जमीर क्यूँ
    तुम्हारा
    सो रहा हे
    sateek prashn hai!
    maanav ki samvedanheenta par chot karti sundar rachna!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सार्थक लेखन ...ज़मीर को मार कर कुछ एहसास नहीं रहता ...

    जवाब देंहटाएं
  3. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी लगी |बधाई
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  5. एक बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह, बहुत खूब...बहुत ही सुंदर कविता लिखी हे आपने...बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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