गीता सुगीता कर्तव्या किमन्ये; शास्त्विस्त्र;
या स्वयंम पद्मनाभस्य मुल्ह्पद्धाद्विनी; स्र्ता
गीता सुगीता करने योग्य हे गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंत; कारण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य हे जो की स्नव्य्म पद्मनाभन भगवान श्री विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई हे स्वयम शिर भगवान ने भी इसके महात्म्य का वर्णन अध्याय १८ श्लोक६८ से ७१ तक क्या हे । इस गीताशास्त्र में मनुष्यमात्र का अधिकार हे चाहे वोह किसी भी वर्ण आश्रम में स्थित हे परन्तु भगवान में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिए कहा गया हे के स्त्री,वेश्य,शुद्र,और पापुयोनी भी मेरे परायण होकर परम गति को प्राप्त होते हें अध्याय ९ के श्लोक ३९ में इसका वर्णन हे अध्याय १८ के श्लोक ४६ में खा गया हे के अपने अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त होते हें। इसमें मोह को त्यागने के निर्देश दिए गये हें ।
श्रीगीताजी में भगवान ने दो मार्ग बतलाये हें एक सांख्ययोग दूसरा कर्मयोग, पहले में खा गया हे के सम्पूर्ण पदार्थ म्र्गत्रिश्ना जल की भांति अथवा स्वप्र की भांति स्रष्टि के सद्र्श मायामी होने से माया के कार्यरूप सम्पूर्ण गुण हो गुणों में बरतते हें ऐसे समझ कर मन इन्द्रियों और शरीर द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होना अनुच्छेद ५ के श्लोक ८,९ में यह कहा गया हे। अनुच्छेद २ और ५ के श्लोक ४८ और १० में कहा गया हे सब कुछ भगवान का समझ कर सिद्धि असिद्धि में समत्वभाव रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा का तय कर केवले भगवान के लियें ही सब आचरण करना हे.त्वमेव माता च पिता त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रिविद त्वमेव त्वमेव सर्व मम देव देव। अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
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