इस दर्दे-मुहब्बत का चारा ही नहीं कोई
समझाया बहुत हमने समझा ही नहीं कोई
उस वक़्त तक़ाज़ा था उस वक़्त मना लेते
अब किसको मनाओगे ग़ुस्सा ही नहीं कोई
रिश्तों ने बहुत हमको ठुकराया तो हम संभले
संभले तो किसी से अब रिश्ता ही नहीं कोई
उस मौत की बस्ती में कोई तो कशिश होगी
इक बार गया तो फिर लौटा ही नहीं कोई
अपनों की इनायत है अपनों के सताये हैं
ग़ैरों से कभी हमको शिकवा ही नहीं कोई
मायूस मुसाफ़िर हैं भटकन की डगर के हम
मंज़िल पे जो ले जाये रस्ता ही नहीं कोई
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डॉ.पूनम यादव
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