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04 जून 2025

एहसास के ज़ख्मों को छिपाना भी नहीं हैं

 

एहसास के ज़ख्मों को छिपाना भी नहीं हैं
आँखों से मगर अश्क बहाना भी नहीं हैं
अल्फाज़ की हुरमत कहीं पामाल ना कर दे
तनक़ीद निगारों का ठिकाना भी नहीं हैं
हंसती हुई आँखों में छिपे दर्द को पढ़ ले
इतना तो कोई शहर में दाना भी नहीं हैं
हर सम्त नज़र आती है तस्वीर तुम्हारी
इस घर में कोई आइना खाना भी नहीं हैं
हासिल भी जो हो जाये तू ईमान गंवा कर
इस शर्त पे दुनिया तुझे पाना भी नहीं हैं .
दुनिया पे भरोसा सिया आये अभी कैसे
दुनिया को अभी ठीक से जाना भी नहीं हैं
सिया सचदेव

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