कुछ लड़कियाँ ग़ुस्से में लिपटी मिलती हैं
सख्त दिखती हैं, तेज़ बोलती हैं।
लोग उन्हें देखकर डरते हैं,
कुछ उनसे उकता भी जाते हैं।
पर कोई नहीं समझता
कितना टूटा हुआ दिल धड़कता है,
कितनी चोटें हैं जो मुस्कान ओढ़े छुपी रहती हैं।
जो बाहर से चट्टान लगती है,
अंदर से बिल्कुल काँच होती है — नाज़ुक और दरकती हुई।
वे हार मानना नहीं जानतीं,
न ही हर दर्द पर आँसू बहाती हैं।
लेकिन जब टूटती हैं
तो शोर नहीं होता।
बस भीतर एक भूकंप आता है
चुपचाप, अकेले।
आँसू उनकी पलकों तक भी नहीं पहुँचते,
सिर्फ़ दिल के किसी कोने में घुलते रहते हैं।
वो छोटे-छोटे तानों से टूटती हैं —
ख़ास कर अपनों से मिली चोटों से।
जिनसे बेइंतहा प्यार करती हैं,
उन्हीं से सबसे गहरे जख़्म भी पाती हैं।
और इन अनकहे दर्दों का बोझ
धीरे-धीरे उन्हें भीतर ही भीतर डुबो देता है।
फिर एक दिन
ग़ुस्सा भी ख़त्म हो जाता है,
अभिमान भी चुप हो जाता है।
ना कोई शिकायत, ना कोई आंसू।
बस एक लंबी चुप्पी
जिसे कोई पढ़ नहीं पाता।
लोग कहते हैं
"तुम पहले जैसी नहीं रहीं, अब बहुत शांत हो गई हो।"
पर कोई नहीं जानता —
इस चुप्पी के पीछे कितनी रातों की सिसकियाँ दबी हैं,
कितना टूट कर बिखर जाना छुपा है।
ग़ुस्से वाली लड़कियाँ ज़्यादा दिन नहीं जीतीं —
कम से कम मन से नहीं।
वो बस जीती हैं
एक खाली शरीर में,
टूटे हुए सपनों और थकी हुई रूह के साथ।
दुनिया बस उनकी परछाई देखती है,
मगर उनकी असली मुस्कान,
उनकी असली जान,
कब और कैसे खो गई
ये कोई नहीं जानता।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
दोस्तों, कुछ गिले-शिकवे और कुछ सुझाव भी देते जाओ. जनाब! मेरा यह ब्लॉग आप सभी भाईयों का अपना ब्लॉग है. इसमें आपका स्वागत है. इसकी गलतियों (दोषों व कमियों) को सुधारने के लिए मेहरबानी करके मुझे सुझाव दें. मैं आपका आभारी रहूँगा. अख्तर खान "अकेला" कोटा(राजस्थान)