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13 मई 2025

सुनो..पत्थरों के भीतर नदी बहती है ( काव्य संग्रह ) "आमजन के दिल तक पहुंचती रचनाएं"

 

ऐसा देश है मेरा/ पुस्तक चर्चा.........794
सुनो..पत्थरों के भीतर नदी बहती है ( काव्य संग्रह )
"आमजन के दिल तक पहुंचती रचनाएं"
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ऐ वतन तेरे शहीदों के बनाये,
नक्शे कदमों पर सदा चलता रहूँगा।
देश मेरे भेंट तन-मन की चढ़ाकर,
फर्ज़ जीवन का अदा करता रहूँगा।
क्यों समझते हो मुझे सामान्य दीपक,
आस्था का दीप हूं जलता रहूँगा।
यही वह प्रेरक रचना है जिसे लेखिका के स्व. पिता शिवप्रसाद शर्मा ने 23 अगस्त 1978 को लिखी थी और लेखिका के लिए लेखन की प्रेरणा बन गई। पहली कविता कब लिखी याद नहीं । जीवन में 55 बसंतों की बहारें देख दुनिया के अनुभवों से परिपक्व होने पर काव्य सृजन के शोक ने जन्म लिया । अनुभव के संग कविताओं के रंग , साफ झलकते हैं इनके सृजन में। आत्म - कथ्य में कहती हैं, " कोटा को स्टोन सीटी के नाम से पहचान मिलने, यहीं पढ़ी लिखी होने से , मन में पत्थर की छवि समा गई और कविताओं में पत्थर शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है। इसीलिए पुस्तक का नामकरण भी सुनो.पत्थरों के भीतर नदी बहती है रख दिया।" एक बानगी देखिए भावनाओं की " काश, जज़्बात पत्थर हो जाते " कविता में
पृष्ठ ( 6,7 ).........
" काश, जज़्बात पत्थर हो जाते, तो दर्द का दरिया ना बहता/ गिले-शिकवे ये ना करता, आँखों से फिर अश्क ना बहते/ ग़म-ए-दास्तां ये ना कहते आहों की आहट ना होती/ जाता तो फिक्र ना करता। हमसाए यूँ ना मंडराते/आप अकेले खुद को पाते।/ खुशियों के सामान ना होते, ग़म इतने आसान ना होते/ मन में कोई चुभन ना होती,कैसे शबनम बनती मोती विरहा के कोई गीत ना गाता/महफिल में ना गज़ल सुनाता।/ अरमानों की वीरानी में/ शब्द कविता ना बन पाते, काश, जज़्बात पत्थर हो जाते।"
कविताओं में पत्थर शब्द का प्रयोग होने से इनकी कविताएं पत्थर दिल नहीं हैं वरन उनमें एहसास है, जज्बात है, बच्चों की कोमल भावनाएं हैं, माँ के वेदना है, कलियां हैं, प्रतीक्षा है, रिश्ते नाते भी हैं, प्रेम का सागर हिलोरे मारता है, देश प्रेम की उमड़ती भावनाएं उमड़ती हैं, उड़ने का हौंसला भी है । एक बानगी देखिए....... डूब भी जाऊं, तो तैरने का हौसला देना/ एक सपना टूटे तो क्या/ कई सपने देखने का हौसला देना।
कविताओं में अनेक महापुरुषों की तरह इन्होंने भी कर्म पर जोर दिया है। पुरुषार्थ को जीवन में जरूरी मानती है। नदी के इसी बहने पर देखिए सृजन की बानगी "मैं तो बहती धारा हूँ"( पृष्ठ 28,29 ) का यह अंश ..........
तू पत्थर है पड़ा रहेगा/ एक ही स्थान पर/ मैं धारा हूँ बहती रहूँगी/ पहुँचूँगी मुकाम पर ।
बहना मेरा स्वभाव है/ रुक सकती नहीं छूकर निकल जाऊँगी/ झुक सकती नहीं ।' अहंकार नहीं यह मेरा आधविश्वास है/ मिलना एक दिन समंदर में ही है।/ ये जीवन का विश्वास है।
जीवन में कर्म और पुरुषार्थ से बढ़ कर कुछ नहीं है। कर्म नहीं करोगे तो हाथ की रेखाएं भी क्या काम आएंगी। भाग्य हाथ की रेखाओं से नहीं कर्म करने से बनता है। कर्म के इस तथ्य को कितनी खूबसूरती से इन्होंने अपनी रचना
में प्रतीत किया है ( पृष्ठ 31 )..........
" कोई कहता, कटी-फटी है, कोई कहता/ छिपी हुई हैं, या धमकाता, है ही नहीं है/ मैं सोचती/क्या रेखाओं के सहारे ही चलता है जीवन ?/या फिर, जीने के अंदाज से बदलती हैं रेखाएं ? /यह तथ्य आज तक मुझे कोई ना समझा पाए। प्रायः मनःस्थिति ही तय करती है दिशाएं/ घुप्प अंधकार युक्त-चित्त मलिन, हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाए/ महीन-सी रोशनी की किरण तभी आस बंधा जाए !/ इसी के सहारे कोई गुमराह, राह पा जाए/ अतिरेक भावों में बह जाए /तो आस्मां से तारे तक तोड़ लाएं ! /पर बुझे मन को सौ सूरज भी ना जगा पाए ! तो क्यों ना पुरुषार्थ की पूंजी कमाएं, और कर्म से ही भाग्य बनाएं।"
सभी महापुरुषों ने सच की महिमा बताई है। कहावत है सच को छुपाने के लिए एक बार झूठ बोला तो बार - बार झूठ बोलना पड़ता है। इनकी कविताओं में भी सच का इकबाल बुलंद किया गया है। देखिए कविता "सच और झूठ"
( पृष्ठ 32 ) में लिखती हैं............
" सच को झूठ के लिफाफे में बंद किया जाता है/ झूठ को सच बना के पेश किया जाता है/
रस्मौ-कसमों की बात बड़ी छोटी है/ हाथ में गीता ओ' कुरान रखा जाता है/कत्ल करता है कोई/ और किसी के हाथों में खूनी खंजर थमा दिया जाता है/ जिसने देखा ही नहीं कुछ भी अपनी आंखों से/ वही चश्मदीद गवाह बना दिया जाता है/ उठती आवाज को ज़ोरे-पैहम से दबाने को ताकते-जिरहां से सामान जुटा जाता है/ पहले कहना, फिर मुकरना और दावा करना/ रंग बदलें है यूं कि गिरगिट भी शरमा जाता है!/ ना तो तीर, ना तलवार, मरे गोली से/ चाशनी झूठ की चढ़ा के, ज़हर परोसा जाता है।
बच्चों के कोमल मन, उनकी हँसी, बाल हट, रुदन, भोलापन आदि को लेकर उनकी कविता " बचपन " देखिए...( पृष्ठ 34)
" जिसकी हंसी से वन-उपवन में पुष्प सैकड़ों खिल जाते/ झर-झर बहते झरने से अनुपम संगीत निकल पाते/ जिसके हठ के आगे चंदा नतमस्तक हैं हो जाते/ जिसके रुदन से दिग्गज डोलें, देव स्वयं ही हिल जाते/ रूठ गये तो सभी मनाने के उपक्रम भी ढह जाते/ जिसे तनिक भी भान नहीं/ कि क्या रिश्ते और क्या नाते ! /निश्छल प्रेम मीठी मुस्कान से बंधन अटूट हैं बंध जाते । /जिसके मन में भेदभाव
या पाप - पुण्य ना आ पाते।/ तुझे नमन शत बार ओ 'बचपन न्यौछावर सब सौगातें ।"
" श्रृंगार कहाँ से लाऊं ?' जैसी कविताओं में दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की चिंता भी साफ दिखाई देती हैं। आधी आबादी का जीवन सुरक्षित नहीं है। खुशहाल नहीं है। तभी इन्होंने कहा "अस्मिता लुटती देखी और रोती विधवाएँ' ।" इसीलिए कहती हैं इस हृदय को प्रेम प्यार की बातें नहीं सूझती। जीवन के आघातों से टूटना नहीं, सामना करना सीखो का संदेश देते हुए कहती हैं, हमें सिर उठाकर चलना है, चाहे कितनी भी तकलीफें जीवन में आएँ, तूफान आएँ, मगर घबराकर बैठ नहीं जाना है। चाहे अपने भी हमें आँखें दिखाएँ, मगर नदी की तरह बहते जाना है, अपना रास्ता नहीं छोड़ना है। नारी शक्ति को समर्पित इस कविता ( पृष्ठ 41) की भावनाएं देखिए.....
" मैं अपनी कविताओं में श्रृंगार कहाँ से लाऊं ?/ सजल नयन से दिखा ना भरपूर प्यार कहाँ से लाऊं ?/दग्ध-हृदय को नहीं सूझती प्रेम - प्यार की बातें, शुष्क धरातल संबंधों के बौछार कहाँ से लाऊं/ सर्दी, गर्मी, वर्षा, सूखा के कहर जिन्हें सहने हैं, भूख बिलखती देख, मधुर आहार कहाँ से लाऊं?/ रोज़ अस्मिता लुटती देखी, और रोती विधवाएं, आर्यवीर स्वयं साक्षी है, तो शर्मसार कहाँ से लाऊं ?/सच को रौंद रहे हैं, न्याय-पुजारी प्रतिपल ऐसे, झूठ की डोली विदा कराने कहार कहाँ से लाऊं ?
" सुलगते प्रश्न" कविता ( पृष्ठ 96 ) मानवीय समस्याओं का आईना दिखाती एक भावप्रधान रचना है...….....
" मेरी लेखनी में ढूंढे से भी श्रृंगार नहीं मिल पायेगा /जहां सुलगते प्रश्न खड़े, अंगार ही बस खिल पाएगा !/ इधर बिलखता बचपन, दूध क्या, रोटी भी ना मिल पाए/ डिग्रियों के बोझ तले, नौजवान कर्म ना कर पायें/ इतना भी लाचार भला, इंसान कहाँ मिल पाएगा? /मेरी लेखनी में ढूंढे से भी श्रृंगार नहीं मिल पायेगा !!/ अभी घाटियाँ फूलों की जो रक्त से सींची जाती हैं /देख तिरंगे में लिपटे शव, मुट्ठियां भींच जाती हैं !/ मिटा सिंदूर, टूटी चूड़ी की खनकार कौन सुन पाएगा?/ मेरी लेखनी में ढूंढे से भी श्रृंगार नहीं मिल पायेगा !!/ कौम भले कोई भी हो, पर राष्ट्र धर्म तो एक है, /एक भारती, एक ही मिट्टी, विविध बोलियाँ अनेक हैं।/माँ की स्तुति ना गाये, सुर स्वीकार नहीं हो पाएगा ! /मेरी लेखनी में ढूंढे से भी श्रृंगार नहीं मिल पायेगा !!/जिस मिट्टी में रहते हो, तुम उसका कर्ज चुकाओ ना,/ हक लेकर भी शिकवे करते, अपने फर्ज निभाओ ना !/देशवासी, क्यों बने प्रवासी, अहंकार नहीं निभ पाएगा ! /मेरी लेखनी में ढूंढे से भी श्रृंगार नहीं मिल पायेगा !!"
देश भक्ति की धारा में गोते लगाती कविता " आजादी के दीवाने " ( पृष्ठ 101 ) में आजादी के दीवानों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए लिखती हैं..............
" सौंधी मिट्टी में सोये हैं, ये आजादी के दीवाने !/अर्पित श्रृद्धा सुमन करें,गाकर शहादत के गाने !/ नाम-अनाम अगणित उत्सर्ग किस्से हजार दीवानों के घर छूटा, सिंदुर मिटा सूनी कलाई के अफसाने ! / स्वेद-कणों से सींचा, शोणित अविरल उनका बहा यहाँ!/ धन-दौलत, शोहरत कुरबां वो कफन ओढ़ गये मस्ताने वो कैद हुए, पहनी बेड़ी, झेली पीड़ा, काला पानी, उन्मुक्त साँस ले, भोग सकें, हम स्वाधीनता के नजराने ! / कोई झूल गया फाँसी हँसकर खा गये गोलियाँ सीने पर, इक स्वप्न सुनहरा मुक्ति का सच कर गए आजादी के दीवाने !/ मुक्ति का मोती सहज नहीं, अनमोल विरासत बलिदानी ! रखो सहेज, बन कर प्रहरी, आभारी हो, दें शुक्राने ।"
ऐसी ही कई भावों वाली 72 कविताओं का यह संग्रह लेखिका के परिपक्व मन की विभिन्न भावनाओं की द्योतक हैं। हर रचना कुछ न कुछ कहती है और एक से बढ़ का एक है। पुस्तक की भूमिका में प्रो. शारदा कृष्णा ने लिखते है, " इस संग्रह की अधिकतम कविताएं विविध छवियों में जीवनानुभवों को सहजता से उकेरती चलती हैं। इनकी भाषा उर्दू मिश्रित हिंदी भाषा कही जा सकती है। भाषाओं का मिला जुला रूप कथ्य के सौंदर्य में अभिवृद्धि ही करता है।" स्व - मंतव्य डॉ. पद्मजा शर्मा लिखती हैं, " कवियित्री सिर्फ अपनी बात नहीं करती है वह अपने मैं के माध्यम से सभी स्त्रियों की बात कर रही है कि हमें सिर उठाकर चलना है, चाहे कितनी भी तकलीफें जीवन में आएँ, तूफ़ान आएँ, मगर घबराकर बैठ नहीं जाना है। चाहे अपने भी हमें आँखें दिखाएँ, मगर नदी की तरह बहते जाना है, अपना रास्ता नहीं छोड़ना है। आप कर्म पर जोर देती हैं। पुरुषार्थ को जीवन में जरूरी मानती हैं।" अभिमत में पुणे की तरूणी कारिया लिखती हैं, " इनकी कविताओं में पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन और सामंजस्य बनाए रखने की सजगता दिखाई देती है। हिन्दी-उर्दू की मिलीजुली भाषाई कसावट में गंगा-जमुनी तहज़ीब है और इसीलिए हर रचना आमजन के दिल तक पहुँचने में कामयाब होती नजर आती है। इस काव्यमय प्रयास से यह आशा जगती है कि समाज की विद्रूपताओं और विषमताओं के बीच भी उनकी लेखनी अपनी धार कभी नहीं खोएगी और शब्दों के वार से इसमें बदलाव की कोशिश जारी रहेगी।" जगह - जगह कविताओं के साथ स्केच दिए गए हैं। छपाई सुंदर पठनीय शब्दों में है। आवरण पृष्ठ शीर्षक के अनुरूप है।
पुस्तक : सुनो..पत्थरों के भीतर नदी बहती है
लेखिका : स्नेहलता शर्मा
प्रकाशक : राम प्रिंटर्स, कोटा
संस्करण : प्रथम
प्रकार : हार्ड बाउंड
पेज : 104
मूल्य : 150 ₹
साहित्यिक परिचय:
कवियित्री स्नेहलता शर्मा का जन्म 4 अगस्त 1967 को इंदौर में हुआ। अर्थशास्त्र, अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान में एम.ए., एम. एड. हैं। कहानी, कविता,भाषण, अभिनय, गायन, नृत्य और समाज सेवा आपकी प्रमुख अभिरुचियां हैं। यह आपकी प्रथम कृति है। आप जिला शिक्षा अधिकारी हैं,कई सम्मानों से सम्मानित हो चुकी हैं।
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समीक्षक
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

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