देश भर में मुकदमों की पेंडेंसी केंद्र सरकार की न्यायिक प्रतिबद्धता मामले में फेल्योर होने का सुबूत, बार कोंसिल्स को गम्भीर चिंतन के साथ, वकीलों के विरुद्ध इल्ज़ामखोरी पर आवाज़ उठाना ज़रूरी
कोटा 23 मार्च, देशभर में लंबित मुकदमों के कारणों की जड़ों तक पहुंचकर, देधभर में न्यायालयों की संख्या में व्रद्धि, जजों की नियुक्ति, तलबी समम्क़ीन पर सख्ती, अदालतों का इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करना ज़रूरी है, इसके लियें बार कौंसिल ऑफ इंडिया, राज्य बार कोंसिल्स , ज़िला बार एसोसिएशन्स को आवाज़ उठाना ज़रूरी हो गया है, यक़ीनन भारत की अदालतों में करोड़ों करोड़ मुक़दमे पेंडिंग है , और केंद्र सरकार ने इसके कारणों को जानने के लिए रिसर्च कमेटी रिपोर्ट में खुद ही , सो कोल्ड तरीके से इसके लिए काफी हद तक वकीलों की अनुपस्थिति को ज़िम्मेदार मान लिया है , बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया , राज्यों की बार कौंसिल ओर ज़िला बार एसोसिएशन्स के लिए यह एक गंभीर चुनौती पूर्ण रिपोर्ट है , देश के वकीलों ने अगर केंद्र सरकार की इस रिपोर्ट का प्रतिकार कर , मुक़दमे पेंडिंग होने में केंद्र सरकार की सुविधाओं का अभाव , अदालतों में जजों की कमी , रिक्त पदों पर भर्ती नहीं होना , जजों, अदालतों के स्टाफ ,,, और वकीलों के बैठने की व्यवस्था नहीं होना,, जजों के अवकाश के कारण पर गौर नहीं किया , तो यह ढर्रा यूँ ही बिगड़ा रहेगा , ,इन पर भी गौर कर एक निष्पक्ष रिपोर्ट होना ही चाहिए , ताकि देश भर की अदालतों में मुक़दमों की संख्या के अनुरूप अदालतों की स्वीकृति , सभी पदों पर भर्तियां और अदालतों के भवन , वकीलों के लिए व्यवस्थाएं , सरकारी वकीलों को सुविधाएं , निचली अदालतों के नियुक्त सरकारी कर्मचारी अभियोजकों को , उस अदालत में फौजदारी मुक़दमों के साथ , सरकार के विरुद्ध सिविल मामलों की सुनवाई की ज़िम्मेदारी भी दिए जाने के फ़ैसले होना ही चाहियें, ,, हर अदालत में अभियोजक की शत प्रतिशत नियुक्ति की सुनिश्चितता वगेरा होना ही चाहिए ,, , केंद्र सरकार की रिपोर्ट के अनुसार देश की अदालतों में लगभग साढ़े चार करोड़ मुक़दमे लंबित हैं इनमे से पचहत्तर लाख मुक़दमों में वकीलों का पेश नहीं होना कारण बताया गया है ,, केंद्र ने मुक़दमों की सुनवाई लटकने के पीछे 14 कारण बताये हैं , जबकि इन कारणों में केंद्र सरकार द्वारा , राज्य सरकारों द्वारा जजों की नियुक्ति नहीं करना , सरकारी वकीलों की नियुक्तियां नहीं करना , जिन क़ानूनों में , समय बद्ध मुक़दमों की समय सीमा निर्धारित है , जैसे घरेलू हिंसा , चेक अनादरण मामलात , मोटर यान दुर्घटना क्षतिपूर्ति मामलात , पारिवारिक न्यायालय के मामलात , उपभोक्ता मामलात ,, मुस्लिम महिला तलाक़ अधिनियम उनका निर्धारित समय सीमा में प्रकरण का निस्तारण तो दूर , इस समय सीमा तक , प्रतिपक्ष की तलबी तक नहीं हो पाती है , देश जानता है , के देश में अदालतों की संख्याओं में कमी है , चेक अनादरण मामलात हों , घरेलू हिंसा ,, पारिवारिक न्यायालय या फिर सिविल मामलात हों , परिवाद मामलात हों , उनमे तलबी की प्रक्रिया जटिल है , अदालतों से जारी सम्मन वारंट अदालतों में तलबी के साथ वापस नहीं आते है , और इन कारणों के खिलाफ संबंधित पुलिस अधिकारी के खिलाफ अदालतों में संज्ञान की कार्यवाही भी नहीं होती है , , गवाह जो सरकारी होते है , खुद को राजकार्य में , व्यस्त बताते हैं , मुख्यमंत्री , प्रधानमंत्री , वी आई पी ड्यूटी में बताकर, कई तारीखों पर नहीं आते हैं , इतना ही नहीं , गवाह पत्रावली पढ़ कर नहीं आते है , माल सहित नहीं आते हैं , एफ एस एल और डी ऍन ऐ रिपोर्टें नहीं आती है , ,अदालतों का जो , मुक़दमों के निस्तारण का कोटा , जांच प्रणाली है , उनमे भी आँकड़ों का खेल है , ,गवाह कितने हुए , जिरह कितनी हुई , ज़मानत की दरख्वास्तें , अपील , निगरानी , अदम हाज़री , लोकअदालत , वगेरा वगेरा इन मापदंडों में परिवर्तन ज़रूरी है , लोकअदालत की तो हद है , जब अदालत खुल रही है , दोनों पक्ष उसी दिन लोक अदालत की भावना से मुक़दमे का निस्तारण चाहते हैं , तो उस मुक़दमे का निस्तारण उसी दिन नहीं होता ,बल्कि , राष्ट्रिय लोक अदालत की तारीख़ उन्हें दी जाती है , और फिर राष्ट्रीय लोक अदालत के आंकड़ों में उस मुक़दमे को जिसका निस्तारण मूल अदालत में हो सकता था , शामिल किया जाता है ,, केंद्र सरकार ने आनुपातिक आधार पर , राज्यों को न्याय व्यवस्था के लिए बजट नहीं दिया , सरकारी वकील नियुक्त नहीं है , सम्मन , वारंट तामील की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है , ,जजों , मजिस्ट्रेटों की बेहिसाब कमी है , एक अदालत के पास दो दो , तीन तीन अदालतों के कार्यभार है , सरकारी गवाहों की समय पर उपस्थिति का कोई क़ानूनी पालना के प्रावधान नहीं है , जबकि अदालत में गवाहान की उपस्थिति के बाद , सी आर पी सी , सी पी सी के विधिक प्रावधान के तहत , जज एक वक़्त पर कंनसन्ट्रेट होकर एक ही काम करेंगे , गवाही पर ध्यान देंगे , भाव भंगिमा पर टिप्पणी करेंगे इसके लिए अदालत में पर्याप्त स्टाफ , पर्याप्त जजों की व्यवस्था नहीं है , जब चेक अनादरण मामलात का प्रकरण तीन माह में निस्तारित करने की अनिवार्यता है , तो फिर तलबी में तारीख तीन माह से भी अधिक समय की दी जाती है , ऐसे में , जब तलबी ही नहीं होगी , पुलिस थाने से सम्मन राजकार्य में व्यस्त है , अभियुक्त मिला नहीं वगेरा वगेरा की बहानेबाज़ी से सम्मन, वारंट लौटेंगे तो फिर मुक़दमे तो पेंडिंग रहेंगे ही , ,कंजूमर मामलों की समय सीमा भी यही है , घरेलू हिंसा मामलात में ,तुरंत अंतरिम आदेश के निर्देश है , समय सीमा है , लेकिन तलबी फिर जवाब , फिर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के आधार पर , शपथ पत्र वगेरा वगेरा , सभी कुछ तो है , और ज़िम्मेदार सिर्फ वकीलों की अनुपस्थिति को , , अदालतों पर केंद्र सरकार का फोकस नहीं है , नए पद भर्ती नहीं , अदालतों का इंफ़्रा स्ट्रक्चर नहीं , किराये की बिल्डिंग में , दो पांच किलोमीटर की दूरी पर अदालतें है , जिला स्तर पर मिनी सेक्रेट्रिएट जहाँ वकीलों से संबंधित सभी राजस्व , पारिवारिक , सिविल , फौजदारी , क्लेम , लेबर, कलेक्ट्रेट वगेरा एक ही छत के नीचे हो , ऐसी व्यवस्थाएं नहीं है ,ज़ाहिर है एक वकील इधर अदालत में फिर एक किलोमीटर दूर , फिर दूसरी दिशा में दो किलोमीटर दूर , फिर अदालत में गवाह तलबी के बाद राजकार्य में वी आई पी ड्यूटी में होने से नहीं आने का कहकर गायब है , कभी न्यायिक अधिकारीगण अचानक अवकाश पर है , पति पत्नी अगर न्यायिक अधिकारी है तो मेटरनिटी लिव दोनों के लिए क़ानूनी प्रावधान के तहत है ,, जो उनका अधिकार है , लेकिन वैकल्पिक व्यवस्थाएं नहीं है , न्यायिक अधिकारीयों पर मुक़दमों की संख्या और समय पर निस्तारण का अनावश्यक बेहिसाब बोझ है , ,आनुपातिक आधार पर नियुक्तियां नहीं है , इधर वकीलों में प्रशिक्षण का अभाव है , जूनियर्स में सीखने की क्षमता का जज़्बा खत्म है , तुरंत आते ही , वोह सीनियर वकील का दर्जा पाने की होड़ में , खुद मुक़दमे करने की कोशिशें करते हैं , गलत सलत होता है , फिर संशोधन की दरख्वास्तें , वगेरा वगेरा होती है , वकीलों में से अधिकतम वकील साथी , न्यायालय की आदेशिका में क्या लिखा गया है , पढ़ते ही नहीं, उस पर निगरानी भी नहीं रखते , अधिकतम पत्रावलियों में अनावश्यक रूप से वकील ने बहस के लिए समय चाहा , पूरी बहस होने के बाद भी जब पत्रावली निर्णय में आना चाहिए तो अगली तारीख पर पता चलता है , पत्रावली मजीद बहस में लिखी गई है , ऐसे कई कारण है , जो मुक़दमों की संख्या को बढ़ा रहे हैं , इन पर अंकुश लगना चाहिए , केंद्र सरकार को जिन लोगों ने यह रिपोर्ट दी है , उनसे जवाब तलब करना ही चाहिए ,क्योंकि जिन बिंदुओं पर विचार होना चाहियें और उन कमियों को दूर करना चाहियें वोह तो इस रिपोर्ट में है ही नहीं , आखिर घरेलू हिंसा , चेक अनादरण मामलात , सेशन ट्रायल दिन प्रतिदिन सुनवाई ,, जैसे समय सीमा क़ानून है , तो फिर चेक अनादरण मामलात के मामले तीन माह में पूरी ट्रायल के साथ निस्तारित क्यों नहीं हो रहे , बात साफ़ है , सिस्टम कमज़ोर है , विधायिका ने क़ानून बनाया , लोकहित में समय सीमा निर्धारित की और कार्यपालिका , उस क़ानून के तहत , मुक़दमों की संख्या के आधार पर , अदालतें ही नहीं खोल पाई , हर शहर में , हज़ारों हज़ार मुक़दमे न्यायिक अधिकारीयों की कमी तलबी नहीं हो पाना , वगेरा वगेरा की वजह से , पेंडिंग है , और एक अदालत में , जहां अधिकतम पचास मुकंदमे प्रतिदिन सुनवाई के लिए होना चाहिए , वहां दो सो , तीन सो , से भी अधिक मुक़दमे सुनवाई के लिए है , तो फिर एक तारीख छह महीने की जाती है ,और केंद्र सरकार कहती है के वकीलों की अनुपस्थिति से कई मामले लंबित है , ,इस मामले में बार कौंसिल ऑफ़ इण्डिया , राज्य की बार कॉंसिलें और ज़िलों की बार एसोसिएशन को सामूहिक जनहित में आवाज़ उठाना ही चाहिए ,,, अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान 9829086339
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