औरत की बेफिक्र चाल...
धक् - सी लगती है किसी को....
औरत की हँसी...
बेपरवाह - सी लगती है किसी को...
औरत का बेरोक – टोक यहाँ – वहाँ आना – जाना...
स्वछन्द - सा लगता है किसी को...
औरत का प्रेम करना...
निर्लज्ज होना - सा लगता है किसी को...
औरत का सवाल करना
हुकूमत के खिलाफ - सा लगता है किसी को....
औरत...
तू समझती है न यह जाल...
इस जाल की तमाम रस्सियों को एक ही सूत से बंटा है...
जिसका रेशा – रेशा चरित्रहीन कहता है तुझे...
लेकिन...
औरत...
तू चल अपनी चाल कि नदी भी बहने लगे तेरे साथ - साथ...
तू ठठाकर हँस कि बच्चे भी खिलखिलाने लगें तेरे साथ-साथ...
तू नाच कि पेड़ भी झूमने लगें तेरे साथ-साथ...
तू नाप धरती का कोना – कोना कि दुनिया का नक्शा उतर आए तेरी हथेली पर...
तू कर प्रेम कि अब लोग प्रेम करना भूलते जा रहे हैं...
तू कर हर वो सवाल, जो तेरी आत्मा से बाहर निकलने को धक्का मार रहा हो...
तू उठा कलम,
और कर हस्ताक्षर...
अपने चरित्र प्रमाण पत्र पर...
कि तेरे चरित्र प्रमाण पत्र पर अब किसी और के हस्ताक्षर अच्छे नहीं लगते..
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