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07 अक्तूबर 2020

_कड़वे वचन_}* -------------------- *गंदा है, पर धंधा है

 

*{_कड़वे वचन_}*
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*गंदा है, पर धंधा है।*
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जनसमर्थन खो चुके सियासी सूरमाओं द्वारा निर्देशित व टी0आर0पी0 के भूखे लोकतंत्र के प्रहरी मिडिया द्वारा निर्मित ,एवं छुटभैये जातिवादी समाज कंटकों द्वारा मंचित मिडिया धारावाहिक *"हाथरस कांड "* सचमुच एक अनोखा प्रयोग है! भ्रमित जनता असमंजस में है कि सच क्या है,और झूठ क्या ? आज का मिडिया अपने नफे नुकसान के हिसाब से अपनी विषयवस्तु चुनकर उसका एक ऐसा आभासी चित्रण करते है व सत्य को उद्घाटित होने से पहले ही उसको दफन कर आभासी झूठ को सत्य की खोज कहते हैं । जांच से पहले अपने ऐजेण्डा अनुसार हर किसी को आरोपी बना देना,और ऊसका चरित्र हनन। अदालतों से पहले अपना निर्णय कर व्यक्ति ,व्यक्तियों अथवा समूहों को दोषी घोषित कर उसे व उसके परिवार को मनमाने रूप से लांछित कर प्रताङित करना मानों मिडिया का अधिकार बन गया है ।
मिडिया की आजादी से इतर, देश के नागरिकों की न कोई आजादी है ना हीं निजता ! बस सबकुछ मिडिया के भरोसे है।
करोड़ों के विज्ञापनों, राज्यसभा सीट एवं टी आर पी का भूखा मिडिया यह नहीं बताता कि केरल सरकार के तथाकथित विकास कार्यों का राजस्थान में प्रचार क्यूं ? केरल की जनता के पैसों से फुल पेज विज्ञापन लेकर अपनी ही तिजोरी तो भरते हो?
सूचना प्राद्ध्योतिकी के दौर में लालची मिडिया ने एक और कुप्रवृत्ति को जन्म दिया है ।गली मोहल्ले के टुच्चे समाजकंटकों को नायक के रूप में प्रस्तुत कर सामाजिक वेमनस्य को बढाना ,जेएनयू के टुच्चे समाज कंटक उमर खालिद, कन्हैया, शैला रशीद या यूपी का जातीवादी छुट्टभैये नेता आदि-आदि । इन सिरफिरों को एक निर्धारित ऐजेण्डे के तहत बार बार दिखाया, सुनाया जाता है जिससे समाज में बैचेनी, बढ़ती है और इसी का इस्तेमाल समाज विरोधी तत्व दंगों की पृष्ठभूमि तैयार करने में करते हैं ।
उपरोक्त वर्णित मिडिया के कुकृत्यों से भारत बार बार हार जाता है।
सँसार के सबसे बडे लोकतंत्र में कितना दबाव सरकार व प्रशासन पर होता इसकी कल्पना भी भयावह है। स्वेच्छाचारी मिडिया व समाज कंटकों के कारण सच, झूठ व झूठ, सच बन जाता है। भारतीय "पुलिस, वकील, अदालतें व जज अभूतपूर्व दबाव में सत्य से परे मिडिया के मनमाने आभासी सत्य पर ही विचार करते हैं, और लहुलुहान सत्य सिसकियाँ लेता हुआ दफन हो जाता है, झूठ, अनाचार के भारी बोझ तले।
घटनाओं/दुर्घटनाओं के तुरन्त बाद गिद्घ की तरह टूट पड़ता है मिडिया जाँच ऐजेन्सी/पुलिस पर, और अपराध की मनमानी व्याख्या कर मनमाफिक नतीजों के लिये दबाव बनाने लगते है।अस्वच्छ डिबेट शो बनाते हैं, अमर्यादित डिबेट में हद तो यहाँ तक हो चुकी है कि मिडिया स्वयं पात्र घडते हैं, किसी को हिन्दू धर्माचार्य किसी को मुस्लिम धर्माचार्य घोषित कर अपने ऐजण्डे के मुताबिक एक दूसरे के धर्म, जाति या समूह के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी करवाते है, फलस्वरूप समाज में वैमनस्य फैलता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मिडिया द्वारा निर्मित जाति, धर्म के पैरोकार समाज के स्थापित मानदण्डों से इतर, मिडिया या राजनैतिक आकांक्षाओं को महिमामंडित करने अथवा किसी की छवि मलिन करने के लिये अनेकों कुतर्क मिडिया में प्रस्तुत करते हैं, उनकी मनमानी व्याख्या सत्ता लोलुप नेताओं के माध्यम से एवं विदेशी चन्दे व ऐजेण्डे पर काम करते तथाकथित समाज सेवियों/एक्टिविस्टों के द्वारा समाज में भयंकर भय का माहौल खडा कर राजनैतिक सत्ताओं को चुनौती देने लगते हैं। वोट से हारी बाजी को अव्यवस्था व भय के माहौल में जीतने की कुचेष्टा की जाती हैं, टीवी ऐन्कर गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगते हैं, मिडिया निर्मित जोकर, टीवी स्टूडियो में बैठकर चीख चीखकर एकदूसरे को कोसते है, ये नवीन जोकरों का पैनल भाषा की मर्यादा भूलकर निरन्तर चिल्ला चिल्लाकर इतना प्रदूषण कर देते है कि दर्शक या तो टीवी बन्द कर देता है अथवा चैनल बदल दैता है। परन्तु उसके कोमल मन मस्तिष्क पर जो इस प्रदूषण का दुष्प्रभाव पड़ता है वह सामाजिक वैमनस्य व दंगों के रूप में समय असमय दृष्टिगोचर होता रहता है, जो न केवल हमारे लोकतंत्र अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिये घातक है।
आज का मिडिया किस प्रकार कानून की धज्जियां उड़ाता है उसकी बानगी आरुषी हत्याकांड से लेकर सी0ए0ए0, दिल्ली दंगों, सुशान्त सिंह, हाथरस कांड तक देखी-समझी जा सकती है।
कानूनों का किस तरह मखौल मिडिया उड़ाता है यह हर केस में देखा जा सकता है। दुष्कर्म पिड़िता की पहचान जाहिर करता मिडिया, अपराधियों की शिनाख्त से पहले चेहरा दिखाता मिडिया, चार्जशीट से पहले जाँच की विषय वस्तु उद्घाटित करता मीडीया, 24 घण्टे की रिपोर्टिंग/डिबेट शो में मनमानी व्याख्या कर जांच ऐजेन्सी को भटकाने या मनघडन्त आरोप किसी भी आरोपी, व्यक्ति या संस्थाओं पर लगाकर उनकी छवि धुमिल करने का कुत्सित प्रयास गैरकानुनी ही नहीं लोकतांत्रिक मुल्यों के भी विपरीत है।
अपराध का मनमाना धारावाहिक प्रसारित करने वाला मिडिया कहीं न कहीं हमारी न्याय व्यवस्था पर भी चोट करता है। हमारे न्यायालयों, न्यायाधीशों पर अनजाना दबाव बनाकर न्याय तंत्र में बाधा डालने का दुष्प्रयास करने की स्वतंत्रता क्या मिडिया को मिलनी चाहिये ? क्या हर आरोपित की छवि के साथ खिलवाड़ बिना न्यायिक आभिमत के देना चाहिये ? यह सभी ज्वलन्त विचारणीय तथ्य है, देश व समाज के सामने ।
लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर समाज को भ्रमित करता मिडिया कब तक स्वीकार्य है?
यही आज का मौलिक यक्ष प्रश्न है लोकतंत्र के समक्ष।
*-महेश-*
(Dr.Mahesh sharma)
[Member Bar Council of Rajsthan] Jaipur
Mob No. 9414053820

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