मोहब्बत का कानों में रस घोलते हैं
ये उर्दू ज़बां है, जो हम बोलते हैं
हैं नादां यहां पर जो लब खोलते हैं
कहीं पत्थरों के सनम बोलते हैं
फले-फूले कैसे ये गूंगी मोहब्बत
न वो बोलते हैं, न हम बोलते हैं
हसीनों से कोई तिजारत न करना
ये कम नापते हैं, ये कम तोलते हैं
हज़ार आफ़तों से बचे रहते हैं वो
जो सुनते ज़्यादा हैं, कम बोलते हैं
ये उर्दू ज़बां है, जो हम बोलते हैं
हैं नादां यहां पर जो लब खोलते हैं
कहीं पत्थरों के सनम बोलते हैं
फले-फूले कैसे ये गूंगी मोहब्बत
न वो बोलते हैं, न हम बोलते हैं
हसीनों से कोई तिजारत न करना
ये कम नापते हैं, ये कम तोलते हैं
हज़ार आफ़तों से बचे रहते हैं वो
जो सुनते ज़्यादा हैं, कम बोलते हैं
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