﴾ 101 ﴿ (हे नबी!) उनसे कहो कि उसे देखो, जो आकाशो तथा धरती में है और निशानियाँ तथा चेतावनियाँ उन्हें क्या लाभ दे सकती हैं, जो ईमान (विश्वास) न रखते हों?
﴾ 102 ﴿ तो क्या, वे इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनपर वैसे ही (बुरे) दिन आयें, जैसे उनसे पहले लोगों पर आ चुके हैं? आप कहिएः फिर तो तुम प्रतीक्षा करो। मैं (भी) तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करने वालों में हूँ।
﴾ 103 ﴿ फिर हम अपने रसूलों को और जो ईमान लाये बचा लेते हैं। इसी प्रकार, हमने अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया है कि ईमान वालों को बचा लेते हैं।
﴾ 104 ﴿ आप कह दें: हे लोगो! यदि तुम, मेरे धर्म के बारे में किसी संदेह में हो, तो (सुन लो) मैं उसकी इबादत (वंदना) कभी नहीं करूँगा, जिसकी इबादत (वंदना) अल्लाह के सिवा तुम करते हो। परन्तु, मैं उस अल्लाह की इबादत (वंदना) करता हूँ, जो तुम्हें मौत देता है और मुझे आदेश दिया गया है कि ईमान वालों में रहूँ।
﴾ 105 ﴿ और ये कि अपने मुख को धर्म के लिए सीधा रखो, एकेश्वरवादी होकर और कदापि मिश्रणवादियों में न रहो।
﴾ 106 ﴿ और अल्लाह के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है। फिर यदि, आप ऐसा करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जायेंगे।
﴾ 107 ﴿ और यदि अल्लाह आपको कोई दुःख पहुँचाना चाहे, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं और यदि आपको कोई भलाई पहुँचाना चाहे, तो कोई उसकी भलाई को रोकने वाला नहीं। वह अपनी दया अपने भक्तों में से जिसपर चाहे, करता है तथा वह क्षमाशील दयावान् है।
﴾ 108 ﴿ (हे नबी!) कह दो कि हे लोगो! तुम्हारे पालनहार की ओर से तुम्हारे पास सत्य आ गया[1] है। अब जो सीधी डगर अपनाता हो, तो उसी के लिए लाभदायक है और जो कुपथ हो जाये, तो उसका कुपथ उसी के लिए नाशकारी है और मैं तुमपर अधिकारी नहीं हूँ[2]।
1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्आन ले कर आ गये हैं। 2. अर्थात मेरा कर्तव्य यह नहीं है कि तुम्हें बलपूर्वक सीधी डगर पर कर दूँ।
﴾ 109 ﴿ आप उसी का अनुसरण करें, जो आपकी ओर प्रकाशना की जा रही है और धैर्य से काम लें, यहाँ तक कि अल्लाह निर्णय कर दे और वह सर्वोत्तम निर्णेता है।
﴾ 102 ﴿ तो क्या, वे इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनपर वैसे ही (बुरे) दिन आयें, जैसे उनसे पहले लोगों पर आ चुके हैं? आप कहिएः फिर तो तुम प्रतीक्षा करो। मैं (भी) तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करने वालों में हूँ।
﴾ 103 ﴿ फिर हम अपने रसूलों को और जो ईमान लाये बचा लेते हैं। इसी प्रकार, हमने अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया है कि ईमान वालों को बचा लेते हैं।
﴾ 104 ﴿ आप कह दें: हे लोगो! यदि तुम, मेरे धर्म के बारे में किसी संदेह में हो, तो (सुन लो) मैं उसकी इबादत (वंदना) कभी नहीं करूँगा, जिसकी इबादत (वंदना) अल्लाह के सिवा तुम करते हो। परन्तु, मैं उस अल्लाह की इबादत (वंदना) करता हूँ, जो तुम्हें मौत देता है और मुझे आदेश दिया गया है कि ईमान वालों में रहूँ।
﴾ 105 ﴿ और ये कि अपने मुख को धर्म के लिए सीधा रखो, एकेश्वरवादी होकर और कदापि मिश्रणवादियों में न रहो।
﴾ 106 ﴿ और अल्लाह के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है। फिर यदि, आप ऐसा करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जायेंगे।
﴾ 107 ﴿ और यदि अल्लाह आपको कोई दुःख पहुँचाना चाहे, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं और यदि आपको कोई भलाई पहुँचाना चाहे, तो कोई उसकी भलाई को रोकने वाला नहीं। वह अपनी दया अपने भक्तों में से जिसपर चाहे, करता है तथा वह क्षमाशील दयावान् है।
﴾ 108 ﴿ (हे नबी!) कह दो कि हे लोगो! तुम्हारे पालनहार की ओर से तुम्हारे पास सत्य आ गया[1] है। अब जो सीधी डगर अपनाता हो, तो उसी के लिए लाभदायक है और जो कुपथ हो जाये, तो उसका कुपथ उसी के लिए नाशकारी है और मैं तुमपर अधिकारी नहीं हूँ[2]।
1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्आन ले कर आ गये हैं। 2. अर्थात मेरा कर्तव्य यह नहीं है कि तुम्हें बलपूर्वक सीधी डगर पर कर दूँ।
﴾ 109 ﴿ आप उसी का अनुसरण करें, जो आपकी ओर प्रकाशना की जा रही है और धैर्य से काम लें, यहाँ तक कि अल्लाह निर्णय कर दे और वह सर्वोत्तम निर्णेता है।
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