﴾ 71 ﴿ उसने कहाः तुमपर तुम्हारे पालनहार का प्रकोप और क्रोध आ पड़ा है। क्या तुम मुझसे कुछ (मूर्तियों के) नामों के विषय में विवाद कर रहे हो, जिनका तुमने तथा तुम्हारे पूर्वजों ने (पूज्य) नाम रखा है, जिसका कोई तर्क (प्रमाण) अल्लाह ने नहीं उतारा है? तो तुम (प्रकोप की) प्रतीक्षा करो और तुम्हारे साथ मैं भी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
﴾ 72 ﴿ फिर हमने उसे और उसके साथियों को बचा लिया तथा उनकी जड़ काट दी, जिन्होंने हमारी आयतों (आदेशों) को झुठला दिया था और वे ईमान लाने वाले नहीं थे।
﴾ 73 ﴿ और (इसी प्रकार) समूद[1] (जाति) के पास उनके भाई सालेह़ को भेजा। उसने कहाः हे मेरी जाति! अल्लाह की (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण (चमत्कार) आ गया है। ये अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक चमत्कार[2] है। अतः इसे अल्लाह की धरती में चरने के लिए छोड़ दो और इसे बुरे विचार से हाथ न लगाना, अन्यथा तुम्हें दुःखदायी यातना घेर लेगी।
1. समूद जाति अरब के उस क्षेत्र में रहती थी, जो ह़िजाज़ तथा शाम के बीच “वादिये क़ुर” तक चला गया है। जिस को आज “अल उला” कहते हैं। इसी को दूसरे स्थान पर “अलहिज्र” भी कहा गया है। 2. समूद जाति ने अपने नबी सालेह़ अलैहिस्सलाम से यह माँग की थी कि पर्वत से एक ऊँटनी निकाल दें। और सालेह़ अलैहिस्सलाम की प्रार्थना से अल्लाह ने उन की यह माँग पूरी कर दी। (इब्ने कसीर)
﴾ 74 ﴿ तथा याद करो कि अल्लाह ने आद जाति के ध्वस्त किए जाने के पश्चात् तुम्हें धरती में अधिकार दिया है और तुम्हें धरती में बसाया है, तुम उसके मैदानों में भवन बनाते हो और पर्वतों को तराशकर घर बनाते हो। अतः अल्लाह के उपकारों को याद करो और धरती में उपद्रव करते न फिरो।
﴾ 75 ﴿ उसकी जाति के घमंडी प्रमुखों ने उन निर्बलों से कहा, जो उनमें से ईमान लाये थेः क्या तुम विश्वास रखते हो कि सालेह़ अपने पालनहार का भेजा हुआ है? उन्होंने कहाः निश्चय जिस (संदेश) के साथ वह भेजा गया है, हम उसपर ईमान (विश्वास) रखते हैं।
﴾ 76 ﴿ (तो इसपर) घमंडियों[1] ने कहाः हमतो जिसका तुमने विश्वास किया है उसे नहीं मानते।
1. अर्तथात अपने संसारिक सुखों के कारण अपने बड़े होने का गर्व था।
﴾ 77 ﴿ फिर उन्होंने ऊँटनी को वध कर दिया और अपने पालनहार के आदेश का उल्लंघन किया और कहाः हे सालेह़! तू हमें जिस (यातना) की धमकी दे रहा था, उसे ले आ, यदि तू वास्तव में रसूलों में है।
﴾ 78 ﴿ तो उन्हें भूकंप ने पकड़ लिया। फिर जब भोर हुई, तो वे अपने घरों में औंधे पड़े हुए थे।
﴾ 79 ﴿ तो सालेह़ ने उनसे मुँह फेर लिया और कहाः हे मेरी जाति! मैंने तुम्हें अपने पालनहार के उपदेश पहुँचा दिये थे और मैंने तुम्हारा भला चाहा। परन्तु तुम उपकारियों से प्रेम नहीं करते।
﴾ 80 ﴿ और हमने लूत[1] को भेजा। जब उसने अपनी जाति से कहाः क्या तुम ऐसी निर्लज्जा का काम कर रहे हो, जो तुमसे पहले संसारवासियों में से किसी ने नहीं किया है?
1. लूत अलैहिस्सलाम इब्राहीम अलैहिस्सलाम के भतीजे थे। और वह जिस जाति के मार्गदर्शन के लिये भेजे गये थे, वह उस क्षेत्र में रहती थी जहाँ अब “मृत सागर” स्थित है। उस का नाम भाष्यकारों ने सदूम बताया है।
﴾ 72 ﴿ फिर हमने उसे और उसके साथियों को बचा लिया तथा उनकी जड़ काट दी, जिन्होंने हमारी आयतों (आदेशों) को झुठला दिया था और वे ईमान लाने वाले नहीं थे।
﴾ 73 ﴿ और (इसी प्रकार) समूद[1] (जाति) के पास उनके भाई सालेह़ को भेजा। उसने कहाः हे मेरी जाति! अल्लाह की (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण (चमत्कार) आ गया है। ये अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक चमत्कार[2] है। अतः इसे अल्लाह की धरती में चरने के लिए छोड़ दो और इसे बुरे विचार से हाथ न लगाना, अन्यथा तुम्हें दुःखदायी यातना घेर लेगी।
1. समूद जाति अरब के उस क्षेत्र में रहती थी, जो ह़िजाज़ तथा शाम के बीच “वादिये क़ुर” तक चला गया है। जिस को आज “अल उला” कहते हैं। इसी को दूसरे स्थान पर “अलहिज्र” भी कहा गया है। 2. समूद जाति ने अपने नबी सालेह़ अलैहिस्सलाम से यह माँग की थी कि पर्वत से एक ऊँटनी निकाल दें। और सालेह़ अलैहिस्सलाम की प्रार्थना से अल्लाह ने उन की यह माँग पूरी कर दी। (इब्ने कसीर)
﴾ 74 ﴿ तथा याद करो कि अल्लाह ने आद जाति के ध्वस्त किए जाने के पश्चात् तुम्हें धरती में अधिकार दिया है और तुम्हें धरती में बसाया है, तुम उसके मैदानों में भवन बनाते हो और पर्वतों को तराशकर घर बनाते हो। अतः अल्लाह के उपकारों को याद करो और धरती में उपद्रव करते न फिरो।
﴾ 75 ﴿ उसकी जाति के घमंडी प्रमुखों ने उन निर्बलों से कहा, जो उनमें से ईमान लाये थेः क्या तुम विश्वास रखते हो कि सालेह़ अपने पालनहार का भेजा हुआ है? उन्होंने कहाः निश्चय जिस (संदेश) के साथ वह भेजा गया है, हम उसपर ईमान (विश्वास) रखते हैं।
﴾ 76 ﴿ (तो इसपर) घमंडियों[1] ने कहाः हमतो जिसका तुमने विश्वास किया है उसे नहीं मानते।
1. अर्तथात अपने संसारिक सुखों के कारण अपने बड़े होने का गर्व था।
﴾ 77 ﴿ फिर उन्होंने ऊँटनी को वध कर दिया और अपने पालनहार के आदेश का उल्लंघन किया और कहाः हे सालेह़! तू हमें जिस (यातना) की धमकी दे रहा था, उसे ले आ, यदि तू वास्तव में रसूलों में है।
﴾ 78 ﴿ तो उन्हें भूकंप ने पकड़ लिया। फिर जब भोर हुई, तो वे अपने घरों में औंधे पड़े हुए थे।
﴾ 79 ﴿ तो सालेह़ ने उनसे मुँह फेर लिया और कहाः हे मेरी जाति! मैंने तुम्हें अपने पालनहार के उपदेश पहुँचा दिये थे और मैंने तुम्हारा भला चाहा। परन्तु तुम उपकारियों से प्रेम नहीं करते।
﴾ 80 ﴿ और हमने लूत[1] को भेजा। जब उसने अपनी जाति से कहाः क्या तुम ऐसी निर्लज्जा का काम कर रहे हो, जो तुमसे पहले संसारवासियों में से किसी ने नहीं किया है?
1. लूत अलैहिस्सलाम इब्राहीम अलैहिस्सलाम के भतीजे थे। और वह जिस जाति के मार्गदर्शन के लिये भेजे गये थे, वह उस क्षेत्र में रहती थी जहाँ अब “मृत सागर” स्थित है। उस का नाम भाष्यकारों ने सदूम बताया है।
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