﴾ 21 ﴿ तथा तुम उसे ले भी कैसे सकते हो, जबकि तुम एक-दूसरे से मिलन कर चुके हो तथा उन्होंने तुमसे (विवाह के समय) दृढ़ वचन लिया है।
﴾ 22 ﴿ और उन स्त्रियों से विवाह[1] न करो, जिनसे तुम्हारे पिताओं ने विवाह किया हो, परन्तु जो पहले हो चुका[2]। वास्तव में, ये निर्लज्जा की तथा अप्रिय बात और बुरी रीति थी।
1. जैसा कि इस्लाम से पहले लोग किया करते थे। और हो सकता है कि आज भी संसार के किसी कोने में ऐसा होता हो। परन्तु यदि भोग करने से पहले बाप ने तलाक़ दे दी हो तो उस स्त्री से विवाह किया जा सकता है। 2. अर्थात इस आदेश के आने से पहले जो कुछ हो गया अल्लाह उसे क्षमा करने वाला है।
﴾ 23 ﴿ तुमपर[1] ह़राम (अवैध) कर दी गयी हैं; तुम्हारी मातायें, तुम्हारी पुत्रियाँ, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी फूफियाँ, तुम्हारी मोसियाँ और भतीजियाँ, भाँजियाँ, तुम्हारी वे मातायें जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो तथा दूध पीने से संबंधित बहनें, तुम्हारी पत्नियों की मातायें, तुम्हारी पत्नियों की पुत्रियाँ जिनका पालन पोषण तुम्हारी गोद में हुआ हो और उन पत्नियों से तुमने संभोग किया हो, यदि उनसे संभोग न किया हो, तो तुमपर कोई दोष नहीं, तुम्हारे सगे पुत्रों की पत्नियाँ और ये[2] कि तुम दो बहनों को एकत्र करो, परन्तु जो हो चुका। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
1. दादियाँ तथा नानियाँ भी इसी में आती हैं। इसी प्रकार पुत्रियों में अपनी संतान की नीचे तक की पुत्रियाँ, और बहनों में सगी हों या पिता अथवा माता से हों, फूफियों में पिता तथा दादा की बहनें, और मोसियों में माताओं और नानियों की बहनें, तथा भतीजी और भाँजी में उन की संतान भी आती हैं। ह़दीस में है कि दूध से वह सभी रिश्ते ह़राम हो जाते हैं, जो गोत्र से ह़राम होते हैं। (सह़ीह़ बुख़ारीः5099, मुस्लिमः1444) पत्नी की पुत्री जो दूसरे पति से हो उसी समय ह़राम (वर्जित) होगी जब उस की माता से संभोग किया हो, केवल विवाह कर लेने से ह़राम नहीं होगी। जैसे दो बहनों को निकाह़ में एकत्र करना वर्जित है उसी प्रकार किसी स्त्री के साथ उस की फूफी अथवा मोसी को भी एकत्र करना ह़दीस से वर्जित है। (देखियेः सह़ीह़ बुखारीः5105, सह़ीह़ मुस्लिमः1408) 2. अर्थात जाहिलिय्यत के युग में।
﴾ 24 ﴿ तथा उन स्त्रियों से (विवाह वर्जित है), जो दूसरों के निकाह़ में हों। परन्तु तुम्हारी दासियाँ[1] जो (युध्द में) तुम्हारे हाथ आयी हों। (ये) तुमपर अल्लाह ने लिख दिया[2] है। और इनके सिवा (दूसरी स्त्रियाँ) तुम्हारे लिए ह़लाल (उचित) कर दी गयी हैं। (प्रतिबंध ये है कि) अपने धनों द्वारा व्यभिचार से सुरक्षित रहने के लिए विवाह करो। फिर उनमें से जिससे लाभ उठाओ, उन्हें उनका महर (विवाह उपहार) अवश्य चुका दो तथा महर (विवाह उपहार) निर्धारित करने के पश्चात् (यदि) आपस की सहमति से (कोई कमी या अधिक्ता कर लो), तो तुमपर कोई दोष नहीं। निःसंदेह, अल्लाह अति ज्ञानी, तत्वज्ञ है।
1. दासी वह स्त्री जो युध्द में बन्दी बनायी गयी हो। उस से एक बार मासिक धर्म आने के पश्चात् सम्भोग करना उचित है, और उसे मुक्त करके उस से विवाह कर लेने का बड़ा पुण्य है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात तुम्हारे लिये नियम बना दिया गया है।
﴾ 25 ﴿ और जो व्यक्ति तुममें से स्वतंत्र ईमान वालियों से विवाह करने की सकत न रखे, तो वह अपने हाथों में आई हुई अपनी ईमान वाली दासियों से (विवाह कर ले)। दरअसल, अल्लाह तुम्हारे ईमान को अधिक जानता है। तुम आपस में एक ही हो[1]। अतः तुम उनके स्वामियों की अनुमति से उन (दासियों) से विवाह कर लो और उन्हें नियमानुसार उनके महर (विवाह उपहार) चुका दो, वे सती हों, व्यभिचारिणी न हों, न गुप्त प्रेमी बना रखी हों। फिर जब वे विवाहित हो जायें, तो यदि व्यभिचार कर जायें, तो उनपर उसका आधा[2] दण्ड है, जो स्वतंत्र स्त्रियों पर है। ये (दासी से विवाह) उसके लिए है, जो तुममें से व्यभिचार से डरता हो और सहन करो, तो ये तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है और अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
1. तुम आपस में एक ही हो, अर्थात मानवता में बराबर हो। ज्ञातव्य है कि इस्लाम से पहले दासिता की परम्परा पूरे विश्व में फैली हुई थी। बलवान जातियाँ निर्बलों को दास बना कर उन के साथ हिंसक व्यवहार करती थीं। क़ुर्आन ने दासिता को केवल युध्द के बन्दियों में सीमित कर दिया। और उन्हें भी अर्थदण्ड ले कर अथवा उपकार कर के मुक्त करने की प्रेरणा दी। फिर उन के साथ अच्छे व्यवहार पर बल दिया। तथा ऐसे आदेश और नियम बना दिये कि दासिता, दासिता नहीं रह गई। यहाँ इसी बात पर बल दिया गया है कि दासियों से विवाह कर लेने में कोई दोष नहीं। इस लिये मानवता में सब बराबर हैं, और प्रधानता का मापदण्ड ईमान तथा सत्कर्म है। 2. अर्थात पचास कोड़े।
﴾ 26 ﴿ अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिए उजागर कर दे तथा तुम्हें भी उनकी नीतियों की राह दर्शा दे, जो तुमसे पहले थे और तुम्हारी क्षमा याचना स्वीकार करे। अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है।
﴾ 27 ﴿ और अल्लाह चाहता है कि तुमपर दया करे तथा जो लोग आकांक्षाओं के पीछे पड़े हुए हैं, वे चाहते हैं कि तुम बहुत अधिक झुक[1] जाओ।
1. अर्थात सत्धर्म से कतरा जाओ।
﴾ 28 ﴿ अल्लाह तुम्हारा (बोझ) हल्का करना[1] चाहता है तथा मानव निर्बल पैदा किया गया है।
1. अर्थात अपने धर्म विधान द्वारा।
﴾ 29 ﴿ हे ईमान वालो! आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, परन्तु ये कि लेन-देन तुम्हारी आपस की स्वीकृति से (धर्म विधानुसार) हो और आत्म हत्या[1] न करो, वास्तव में, अल्लाह तुम्हारे लिए अति दयावान् है।
1. इस का अर्थ यह भी किया गया है कि अवैध कर्मों द्वारा अपना विनाश न करो, तथा यह भी कि आपस में रक्तपात न करो, और यह तीनों ही अर्थ सह़ीह़ हैं। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)
﴾ 30 ﴿ और जो अतिक्रमण तथा अत्याचार से ऐसा करेगा, समीप है कि हम उसे अग्नि में झोंक देंगे और ये अल्लाह के लिए सरल है।
﴾ 22 ﴿ और उन स्त्रियों से विवाह[1] न करो, जिनसे तुम्हारे पिताओं ने विवाह किया हो, परन्तु जो पहले हो चुका[2]। वास्तव में, ये निर्लज्जा की तथा अप्रिय बात और बुरी रीति थी।
1. जैसा कि इस्लाम से पहले लोग किया करते थे। और हो सकता है कि आज भी संसार के किसी कोने में ऐसा होता हो। परन्तु यदि भोग करने से पहले बाप ने तलाक़ दे दी हो तो उस स्त्री से विवाह किया जा सकता है। 2. अर्थात इस आदेश के आने से पहले जो कुछ हो गया अल्लाह उसे क्षमा करने वाला है।
﴾ 23 ﴿ तुमपर[1] ह़राम (अवैध) कर दी गयी हैं; तुम्हारी मातायें, तुम्हारी पुत्रियाँ, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी फूफियाँ, तुम्हारी मोसियाँ और भतीजियाँ, भाँजियाँ, तुम्हारी वे मातायें जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो तथा दूध पीने से संबंधित बहनें, तुम्हारी पत्नियों की मातायें, तुम्हारी पत्नियों की पुत्रियाँ जिनका पालन पोषण तुम्हारी गोद में हुआ हो और उन पत्नियों से तुमने संभोग किया हो, यदि उनसे संभोग न किया हो, तो तुमपर कोई दोष नहीं, तुम्हारे सगे पुत्रों की पत्नियाँ और ये[2] कि तुम दो बहनों को एकत्र करो, परन्तु जो हो चुका। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
1. दादियाँ तथा नानियाँ भी इसी में आती हैं। इसी प्रकार पुत्रियों में अपनी संतान की नीचे तक की पुत्रियाँ, और बहनों में सगी हों या पिता अथवा माता से हों, फूफियों में पिता तथा दादा की बहनें, और मोसियों में माताओं और नानियों की बहनें, तथा भतीजी और भाँजी में उन की संतान भी आती हैं। ह़दीस में है कि दूध से वह सभी रिश्ते ह़राम हो जाते हैं, जो गोत्र से ह़राम होते हैं। (सह़ीह़ बुख़ारीः5099, मुस्लिमः1444) पत्नी की पुत्री जो दूसरे पति से हो उसी समय ह़राम (वर्जित) होगी जब उस की माता से संभोग किया हो, केवल विवाह कर लेने से ह़राम नहीं होगी। जैसे दो बहनों को निकाह़ में एकत्र करना वर्जित है उसी प्रकार किसी स्त्री के साथ उस की फूफी अथवा मोसी को भी एकत्र करना ह़दीस से वर्जित है। (देखियेः सह़ीह़ बुखारीः5105, सह़ीह़ मुस्लिमः1408) 2. अर्थात जाहिलिय्यत के युग में।
﴾ 24 ﴿ तथा उन स्त्रियों से (विवाह वर्जित है), जो दूसरों के निकाह़ में हों। परन्तु तुम्हारी दासियाँ[1] जो (युध्द में) तुम्हारे हाथ आयी हों। (ये) तुमपर अल्लाह ने लिख दिया[2] है। और इनके सिवा (दूसरी स्त्रियाँ) तुम्हारे लिए ह़लाल (उचित) कर दी गयी हैं। (प्रतिबंध ये है कि) अपने धनों द्वारा व्यभिचार से सुरक्षित रहने के लिए विवाह करो। फिर उनमें से जिससे लाभ उठाओ, उन्हें उनका महर (विवाह उपहार) अवश्य चुका दो तथा महर (विवाह उपहार) निर्धारित करने के पश्चात् (यदि) आपस की सहमति से (कोई कमी या अधिक्ता कर लो), तो तुमपर कोई दोष नहीं। निःसंदेह, अल्लाह अति ज्ञानी, तत्वज्ञ है।
1. दासी वह स्त्री जो युध्द में बन्दी बनायी गयी हो। उस से एक बार मासिक धर्म आने के पश्चात् सम्भोग करना उचित है, और उसे मुक्त करके उस से विवाह कर लेने का बड़ा पुण्य है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात तुम्हारे लिये नियम बना दिया गया है।
﴾ 25 ﴿ और जो व्यक्ति तुममें से स्वतंत्र ईमान वालियों से विवाह करने की सकत न रखे, तो वह अपने हाथों में आई हुई अपनी ईमान वाली दासियों से (विवाह कर ले)। दरअसल, अल्लाह तुम्हारे ईमान को अधिक जानता है। तुम आपस में एक ही हो[1]। अतः तुम उनके स्वामियों की अनुमति से उन (दासियों) से विवाह कर लो और उन्हें नियमानुसार उनके महर (विवाह उपहार) चुका दो, वे सती हों, व्यभिचारिणी न हों, न गुप्त प्रेमी बना रखी हों। फिर जब वे विवाहित हो जायें, तो यदि व्यभिचार कर जायें, तो उनपर उसका आधा[2] दण्ड है, जो स्वतंत्र स्त्रियों पर है। ये (दासी से विवाह) उसके लिए है, जो तुममें से व्यभिचार से डरता हो और सहन करो, तो ये तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है और अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
1. तुम आपस में एक ही हो, अर्थात मानवता में बराबर हो। ज्ञातव्य है कि इस्लाम से पहले दासिता की परम्परा पूरे विश्व में फैली हुई थी। बलवान जातियाँ निर्बलों को दास बना कर उन के साथ हिंसक व्यवहार करती थीं। क़ुर्आन ने दासिता को केवल युध्द के बन्दियों में सीमित कर दिया। और उन्हें भी अर्थदण्ड ले कर अथवा उपकार कर के मुक्त करने की प्रेरणा दी। फिर उन के साथ अच्छे व्यवहार पर बल दिया। तथा ऐसे आदेश और नियम बना दिये कि दासिता, दासिता नहीं रह गई। यहाँ इसी बात पर बल दिया गया है कि दासियों से विवाह कर लेने में कोई दोष नहीं। इस लिये मानवता में सब बराबर हैं, और प्रधानता का मापदण्ड ईमान तथा सत्कर्म है। 2. अर्थात पचास कोड़े।
﴾ 26 ﴿ अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिए उजागर कर दे तथा तुम्हें भी उनकी नीतियों की राह दर्शा दे, जो तुमसे पहले थे और तुम्हारी क्षमा याचना स्वीकार करे। अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है।
﴾ 27 ﴿ और अल्लाह चाहता है कि तुमपर दया करे तथा जो लोग आकांक्षाओं के पीछे पड़े हुए हैं, वे चाहते हैं कि तुम बहुत अधिक झुक[1] जाओ।
1. अर्थात सत्धर्म से कतरा जाओ।
﴾ 28 ﴿ अल्लाह तुम्हारा (बोझ) हल्का करना[1] चाहता है तथा मानव निर्बल पैदा किया गया है।
1. अर्थात अपने धर्म विधान द्वारा।
﴾ 29 ﴿ हे ईमान वालो! आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, परन्तु ये कि लेन-देन तुम्हारी आपस की स्वीकृति से (धर्म विधानुसार) हो और आत्म हत्या[1] न करो, वास्तव में, अल्लाह तुम्हारे लिए अति दयावान् है।
1. इस का अर्थ यह भी किया गया है कि अवैध कर्मों द्वारा अपना विनाश न करो, तथा यह भी कि आपस में रक्तपात न करो, और यह तीनों ही अर्थ सह़ीह़ हैं। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)
﴾ 30 ﴿ और जो अतिक्रमण तथा अत्याचार से ऐसा करेगा, समीप है कि हम उसे अग्नि में झोंक देंगे और ये अल्लाह के लिए सरल है।

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