﴾ 251 ﴿ तो उन्होंने अल्लाह की अनुमति से उन्हें पराजित कर दिया और दावूद ने जालूत को वध कर दिया तथा अल्लाह ने उसे (दावूद[1] को) राज्य और ह़िक्मत (नुबूवत)
प्रदान की तथा उसे जो ज्ञान चाहा, दिया और यदि अल्लाह कुछ लोगों की कुछ
लोगों द्वारा रक्षा न करता, तो धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती, परन्तु संसार
वासियों पर अल्लाह बड़ा दयाशील है।
1. दाऊद अलैहिस्सलाम तालूत की सेना में एक सैनिक थे, जिन को अल्लाह ने राज्य देने के साथ नबी भी बनाया। उन्हीं के पुत्र सुलैमान अलैहिस्सलाम थे। दावूद अलैहिस्सलाम को अल्लाह ने धर्म पुस्तक ज़बूर प्रदान की। सूरह साद में उन की कथा आ रही है।
﴾ 252 ﴿ (हे नबी!) ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम आपको सुना रहे हैं तथा वास्तव में, आप रसूलों में से हैं।
﴾ 253 ﴿ वो रसूल हैं। उनहें हमने एक-दूसरे पर प्रधानता दी है। उनमें से कुछ ने अल्लाह से बात की और कुछ को कई श्रेणियाँ ऊँचा किया तथा मर्यम के पुत्र ईसा को खुली निशानियाँ दीं और रूह़ुलक़ुदुस[1] द्वारा उसे समर्थन दिया और यदि अल्लाह चाहता, तो इन रसूलों के पश्चात् खुली निशानियाँ आ जाने पर लोग आपस में न लड़ते, परन्तु उन्होंने विभेद किया, तो उनमें से कोई ईमान लाया और किसी ने कुफ़्र किया और यदि अल्लाह चाहता, तो वे नहीं लड़ते, परन्तु अल्लाह जो चाहता है, करता है।
1. “रूह़ुल क़ुदुस” का शाब्दिक अर्थ पवित्रात्मा है। और इस से अभिप्रेत एक फ़रिश्ता है, जिस का नाम “जिब्रील” अलैहिस्सलाम है।
﴾ 254 ﴿ हे ईमान वालो! हमने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें से दान करो, उस दिन (अर्थातः प्रलय) के आने से पहले, जिसमें न कोई सौदा होगा, न कोई मैत्री और न ही कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) काम आएगी तथा काफ़िर लोग[1] ही अत्याचारी[2] हैं।
1. अर्थात जो इस तथ्य को नहीं मानते वही स्वयं को हानि पहुँचा रहे हैं। 2. आयत का भावार्थ यह है कि परलोक की मुक्ति ईमान और सदाचार पर निरभर है, न वहाँ मुक्ति का सौदा होगा न मैत्री और सिफ़ारिश काम आयेगी।
﴾ 255 ﴿ अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, वह जीवित[1] तथा नित्य स्थायी है, उसे ऊँघ तथा निद्रा नहीं आती। आकाश और धरती में जो कुछ है, सब उसी का[2] है। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) कर सके? जो कुछ उनके समक्ष और जो कुछ उनसे ओझल है, सब जानता है। उसके ज्ञान में से वही जान सकते हैं, जिसे वह चाहे। उसकी कुर्सी आकाश तथा धरती को समोये हुए है। उन दोनों की रक्षा उसे नहीं थकाती। वही सर्वोच्च[3], महान है।
1. अर्थात स्वयंभु, अनन्त है। 2. अर्थात जो स्वयं स्थित तथा सब उस की सहायता से स्थित हैं। 3. यह क़ुर्आन की सर्वमहान आयत है। और इस का नाम “आयतुल कुर्सी” है। ह़दीस में इस की बड़ी प्रधानता बताई गई है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
﴾ 256 ﴿ धर्म में बल प्रयोग नहीं। सुपथ, कुपथ से अलग हो चुका है। अतः, अब जो ताग़ूत (अर्थात अल्लाह के सिवा पूज्यों) को नकार दे तथा अल्लाह पर ईमान लाये, तो उसने दृढ़ कड़ा (सहारा) पकड़ लिया, जो कभी खण्डित नहीं हो सकता तथा अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता[1] है।
1. आयत का भावार्थ यह है कि धर्म तथा आस्था के विषय में बल प्रयोग की अनुमति नहीं, धर्म दिल की आस्था और विश्वास की चीज़ है। जो शिक्षा दिक्षा से पैदा हो सकता है, न कि बल प्रयोग और दबाव से। इस में यह संकेत भी है कि इस्लाम में जिहाद अत्याचार को रोकने तथा सत्धर्म की रक्षा के लिये है न कि धर्म के प्रसार के लिये। धर्म के प्रसार का साधन एक ही है, और वह प्रचार है, सत्य प्रकाश है। यदि अंधकार हो तो केवल प्रकाश की आवश्यक्ता है। फिर प्रकाश जिस ओर फिरेगा तो अंधकार स्वयं दूर हो जायेगा।
﴾ 257 ﴿ अल्लाह उनका सहायक है, जो ईमान लाये। वह उनहें अंधेरों से निकालता है और प्रकाश में लाता है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हैं, उनके सहायक ताग़ूत (उनके मिथ्या पूज्य) हैं। जो उन्हें प्रकाश से अंधेरों की और ले जाते हैं। यही नारकी हैं, जो उसमें सदावासी होंगे।
﴾ 258 ﴿ (हे नबी!) क्या आपने उस व्यक्ति की दशा पर विचार नहीं किया, जिसने इब्राहीम से उसके पालनहार के विषय में विवाद किया, इसलिए कि अल्लाह ने उसे राज्य दिया था? जब इब्राहीम ने कहाः मेरा पालनहार वो है, जो जीवित करता तथा मारता है, तो उसने कहाः मैं भी जीवित[1] करता तथा मारता हूँ। इब्राहीम ने कहाः अल्लाह सूर्य को पूर्व से लाता है, तू उसे पश्चिम से ले आ! (ये सुनकर) काफ़िर चकित रह गया और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
1. अर्थात जिसे चाहूँ मार दूँ और जिसे चाहूँ क्षमा कर दूँ। इस आयत में अल्लाह के विश्व व्यवस्थापक होने का प्रमाणिकरण है। और इस के पश्चात की आयत में उस के मुर्दे को जीवित करने की शक्ति का प्रमाणिकरण है।
﴾ 259 ﴿ अथवा उस व्यक्ति के प्रकार, जो एक ऐसी नगरी से गुज़रा, जो अपनी छतों सहित ध्वस्त पड़ी थी? उसने कहाः अल्लाह इसके ध्वस्त हो जाने के पश्चात् इसे कैसे जीवित (आबाद) करेगा? फिर अल्लाह ने उसे सौ वर्ष तक मौत दे दी। फिर उसे जीवित किया और कहाः तुम कितनी अवधि तक मुर्दा पड़े रहे? उसने कहाः एक दिन अथवा दिन के कुछ क्षण। (अल्लाह ने) कहाः बल्कि तुम सौ वर्ष तक पड़े रहे। अपने खाने पीने को देखो कि तनिक परिवर्तन नहीं हुआ है तथा अपने गधे की ओर देखो, ताकी हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी (चिन्ह) बना दें तथा (गधे की) अस्थियों को देखो कि हम उन्हें कैसे खड़ा करते हैं और उनपर कैसे माँस चढ़ाते हैं? इस प्रकार जब उसके समक्ष बातें उजागर हो गयीं, तो वह[1] पुकार उठा कि मझे (प्रत्यक्ष) ज्ञान हो गया कि अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
1. इस व्यक्ति के विषय में भाष्यकारों ने विभेद किया है। परन्तु सम्भवतः वह व्यक्ति “उज़ैर” थे। और नगरी “बैतुल मक़्दिस” थी। जिसे बुख़्त नस्सर राजा ने आक्रमण कर के उजाड़ दिया था। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
﴾ 260 ﴿ तथा (याद करो) जब इब्राहीम ने कहाः हे मेरे पालनहार! मुझे दिखा दे कि तू मुर्दों को कैसे जीवित कर देता है? (अल्लाह ने) कहाः क्या तुम ईमान नहीं लाये? उसने कहाः क्यों नहीं? परन्तु ताकि मेरे दिल को संतोष हो जाये। अल्लाह ने कहाः चार पक्षी ले आओ और उनहें अपने से परचा लो। (फिर उन्हें वध करके) उनका एक-एक अंश (भाग) पर्वत पर रख दो। फिर उन्हें पुकारो। वे तुम्हारे पास दौड़े चले आयेंगे और ये जान ले कि अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है।
1. दाऊद अलैहिस्सलाम तालूत की सेना में एक सैनिक थे, जिन को अल्लाह ने राज्य देने के साथ नबी भी बनाया। उन्हीं के पुत्र सुलैमान अलैहिस्सलाम थे। दावूद अलैहिस्सलाम को अल्लाह ने धर्म पुस्तक ज़बूर प्रदान की। सूरह साद में उन की कथा आ रही है।
﴾ 252 ﴿ (हे नबी!) ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम आपको सुना रहे हैं तथा वास्तव में, आप रसूलों में से हैं।
﴾ 253 ﴿ वो रसूल हैं। उनहें हमने एक-दूसरे पर प्रधानता दी है। उनमें से कुछ ने अल्लाह से बात की और कुछ को कई श्रेणियाँ ऊँचा किया तथा मर्यम के पुत्र ईसा को खुली निशानियाँ दीं और रूह़ुलक़ुदुस[1] द्वारा उसे समर्थन दिया और यदि अल्लाह चाहता, तो इन रसूलों के पश्चात् खुली निशानियाँ आ जाने पर लोग आपस में न लड़ते, परन्तु उन्होंने विभेद किया, तो उनमें से कोई ईमान लाया और किसी ने कुफ़्र किया और यदि अल्लाह चाहता, तो वे नहीं लड़ते, परन्तु अल्लाह जो चाहता है, करता है।
1. “रूह़ुल क़ुदुस” का शाब्दिक अर्थ पवित्रात्मा है। और इस से अभिप्रेत एक फ़रिश्ता है, जिस का नाम “जिब्रील” अलैहिस्सलाम है।
﴾ 254 ﴿ हे ईमान वालो! हमने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें से दान करो, उस दिन (अर्थातः प्रलय) के आने से पहले, जिसमें न कोई सौदा होगा, न कोई मैत्री और न ही कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) काम आएगी तथा काफ़िर लोग[1] ही अत्याचारी[2] हैं।
1. अर्थात जो इस तथ्य को नहीं मानते वही स्वयं को हानि पहुँचा रहे हैं। 2. आयत का भावार्थ यह है कि परलोक की मुक्ति ईमान और सदाचार पर निरभर है, न वहाँ मुक्ति का सौदा होगा न मैत्री और सिफ़ारिश काम आयेगी।
﴾ 255 ﴿ अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, वह जीवित[1] तथा नित्य स्थायी है, उसे ऊँघ तथा निद्रा नहीं आती। आकाश और धरती में जो कुछ है, सब उसी का[2] है। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) कर सके? जो कुछ उनके समक्ष और जो कुछ उनसे ओझल है, सब जानता है। उसके ज्ञान में से वही जान सकते हैं, जिसे वह चाहे। उसकी कुर्सी आकाश तथा धरती को समोये हुए है। उन दोनों की रक्षा उसे नहीं थकाती। वही सर्वोच्च[3], महान है।
1. अर्थात स्वयंभु, अनन्त है। 2. अर्थात जो स्वयं स्थित तथा सब उस की सहायता से स्थित हैं। 3. यह क़ुर्आन की सर्वमहान आयत है। और इस का नाम “आयतुल कुर्सी” है। ह़दीस में इस की बड़ी प्रधानता बताई गई है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
﴾ 256 ﴿ धर्म में बल प्रयोग नहीं। सुपथ, कुपथ से अलग हो चुका है। अतः, अब जो ताग़ूत (अर्थात अल्लाह के सिवा पूज्यों) को नकार दे तथा अल्लाह पर ईमान लाये, तो उसने दृढ़ कड़ा (सहारा) पकड़ लिया, जो कभी खण्डित नहीं हो सकता तथा अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता[1] है।
1. आयत का भावार्थ यह है कि धर्म तथा आस्था के विषय में बल प्रयोग की अनुमति नहीं, धर्म दिल की आस्था और विश्वास की चीज़ है। जो शिक्षा दिक्षा से पैदा हो सकता है, न कि बल प्रयोग और दबाव से। इस में यह संकेत भी है कि इस्लाम में जिहाद अत्याचार को रोकने तथा सत्धर्म की रक्षा के लिये है न कि धर्म के प्रसार के लिये। धर्म के प्रसार का साधन एक ही है, और वह प्रचार है, सत्य प्रकाश है। यदि अंधकार हो तो केवल प्रकाश की आवश्यक्ता है। फिर प्रकाश जिस ओर फिरेगा तो अंधकार स्वयं दूर हो जायेगा।
﴾ 257 ﴿ अल्लाह उनका सहायक है, जो ईमान लाये। वह उनहें अंधेरों से निकालता है और प्रकाश में लाता है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हैं, उनके सहायक ताग़ूत (उनके मिथ्या पूज्य) हैं। जो उन्हें प्रकाश से अंधेरों की और ले जाते हैं। यही नारकी हैं, जो उसमें सदावासी होंगे।
﴾ 258 ﴿ (हे नबी!) क्या आपने उस व्यक्ति की दशा पर विचार नहीं किया, जिसने इब्राहीम से उसके पालनहार के विषय में विवाद किया, इसलिए कि अल्लाह ने उसे राज्य दिया था? जब इब्राहीम ने कहाः मेरा पालनहार वो है, जो जीवित करता तथा मारता है, तो उसने कहाः मैं भी जीवित[1] करता तथा मारता हूँ। इब्राहीम ने कहाः अल्लाह सूर्य को पूर्व से लाता है, तू उसे पश्चिम से ले आ! (ये सुनकर) काफ़िर चकित रह गया और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
1. अर्थात जिसे चाहूँ मार दूँ और जिसे चाहूँ क्षमा कर दूँ। इस आयत में अल्लाह के विश्व व्यवस्थापक होने का प्रमाणिकरण है। और इस के पश्चात की आयत में उस के मुर्दे को जीवित करने की शक्ति का प्रमाणिकरण है।
﴾ 259 ﴿ अथवा उस व्यक्ति के प्रकार, जो एक ऐसी नगरी से गुज़रा, जो अपनी छतों सहित ध्वस्त पड़ी थी? उसने कहाः अल्लाह इसके ध्वस्त हो जाने के पश्चात् इसे कैसे जीवित (आबाद) करेगा? फिर अल्लाह ने उसे सौ वर्ष तक मौत दे दी। फिर उसे जीवित किया और कहाः तुम कितनी अवधि तक मुर्दा पड़े रहे? उसने कहाः एक दिन अथवा दिन के कुछ क्षण। (अल्लाह ने) कहाः बल्कि तुम सौ वर्ष तक पड़े रहे। अपने खाने पीने को देखो कि तनिक परिवर्तन नहीं हुआ है तथा अपने गधे की ओर देखो, ताकी हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी (चिन्ह) बना दें तथा (गधे की) अस्थियों को देखो कि हम उन्हें कैसे खड़ा करते हैं और उनपर कैसे माँस चढ़ाते हैं? इस प्रकार जब उसके समक्ष बातें उजागर हो गयीं, तो वह[1] पुकार उठा कि मझे (प्रत्यक्ष) ज्ञान हो गया कि अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
1. इस व्यक्ति के विषय में भाष्यकारों ने विभेद किया है। परन्तु सम्भवतः वह व्यक्ति “उज़ैर” थे। और नगरी “बैतुल मक़्दिस” थी। जिसे बुख़्त नस्सर राजा ने आक्रमण कर के उजाड़ दिया था। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
﴾ 260 ﴿ तथा (याद करो) जब इब्राहीम ने कहाः हे मेरे पालनहार! मुझे दिखा दे कि तू मुर्दों को कैसे जीवित कर देता है? (अल्लाह ने) कहाः क्या तुम ईमान नहीं लाये? उसने कहाः क्यों नहीं? परन्तु ताकि मेरे दिल को संतोष हो जाये। अल्लाह ने कहाः चार पक्षी ले आओ और उनहें अपने से परचा लो। (फिर उन्हें वध करके) उनका एक-एक अंश (भाग) पर्वत पर रख दो। फिर उन्हें पुकारो। वे तुम्हारे पास दौड़े चले आयेंगे और ये जान ले कि अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है।
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